संजय सक्सेना
मध्य प्रदेश में हाउसिंग सोसायटी बनाकर भू-माफिया के साथ मिलकर जमीन का खेल खेलने वाली गृह निर्माण समितियों के ऊपर सहकारिता विभाग नकेल कसने की बात कही जा रही है, लेकिन इसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी तो सीधे विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की होती है, क्या सरकार उन पर भी कोई कार्रवाई करेगी। अभी तो अधिकांश समितियों के रिकॉर्ड गायब हैं। कइयों ने नियमित ऑडिट भी नहीं करवाया है, सवाल उठता है कि विभाग क्या कर रहा था? जिन अधिकारियों के क्षेत्र में यह हुआ है, उन पर क्या कार्रवाई होगी? जो दसियों साल से एक ही जगह जमे हुए हैं, क्या उनकी भी सूची बनेगी?
अपनी जान बचाने के लिए फिलहाल तो अधिकारी एकदम सक्रिय हो गए हैं। कह रहे हैं कि सबसे पहले समिति का रिकॉर्ड जुटाया जाएगा। यदि समिति पदाधिकारी रिकॉर्ड नहीं देते हैं तो घर पर पुलिस और प्रशासन का सहयोग लेकर छापे भी मारे जाएंगे। नए सिरे से रिकॉर्ड तैयार करने का काम भी साथ- साथ चलेगा, ताकि प्रभावितों को भूखंड दिलाए जा सकेंगे। उधर, कार्रवाई में तेजी लाने के लिए दो अभियोजन अधिकारी के पद स्वीकृत कराने कैबिनेट में प्रस्ताव रखने की तैयारी भी हो गई है। सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जब से भू-माफिया के खिलाफ अभियान छेडऩे का फैसला किया है, तब ही विभाग के अफसरों की नींद खुली है और दिखाने के लिए गृह निर्माण सहकारी समितियों के रिकॉर्ड खंगाले जा रहे हैं।
विभाग के अफसर कह रहे हैं कि भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर में ज्यादातर हाउसिंग सोसायटी के रिकॉर्ड विभाग को नहीं मिल रहे हैं। दरअसल, इन सोसायटियों ने न तो रिकॉर्ड जमा कराए और न ही नियमित ऑडिट कराया, फिर इतने दिनों तक मैदानी कर्मचारी और अधिकारी क्या कर रहे थे? सहकारिता निरीक्षकों की क्या जिम्मेदारी होती है? उपायुक्त सहकारिता की क्या जिम्मेदारी होती है? सरकार में बैठे लोगों को पता होना चाहिए कि अधिकारियों के हस्ताक्षर
से ही सहकारी समितियों के फर्जी चुनाव भी कराए जाते हैं। इनकी जेबें भरकर ही हस्ताक्षर कराना संभव होता है। रोहित गृह निर्माण समिति के खिलाफ कार्रवाई जानबूझकर नहीं की जा रही थी। सहकारिता क्षेत्र पर शुरू से गौर किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि जिसकी सरकार होती है, वही चुनावों में जीतता है। उन्हीं लोगों की समितियां अचानक करोड़ों में खेलने लगती हैं। आखिर कैसे? इस पर किसी ने सोचा है? सीधी बात है सहकारी समितियों से लेकर बैंकों तक के चुनाव शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के संरक्षण में ही होते हैं। जैसे ही दूसरी पार्टी सरकार में आती है, पिछली पार्टी के लोगों को हटाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। या तो चुनाव कराए जाते हैं या फिर प्रशासक बैठा दिए जाते हैं। फिर रिकार्ड खंगालने की बात कही जाती है।
यही आज भी हो रहा है। अब सहकारिता विभाग के अधिकारी बड़े ईमानदार बनने की कोशिश कर रहे हैं। भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर जैसे बड़े शहरों ही नहीं अन्य तमाम शहरों में भी सहकारी विभाग के अधिकारी और कर्मचारी वर्षों तक काबिज रहते हैं। सरकार बदलने के बाद ही तबादले होते हैं, कई बार वो भी नहीं, क्योंकि अफसर नई सरकार के हिसाब से काम करने लग जाते हैं। सहकारिता का खेल आज से नहीं चार दशक से चल रहा है। तमाम नेता सहकारिता के माध्यम से ही करोड़पति और अरबपति बने हुए हैं। उनकी राजनीति सहकारिता से ही चल रही है।
कमलनाथ सरकार ने जब भू माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही, उसके बाद ही रिकार्ड गायब होना शुरू हुआ है। अब अफसर ईमानदार बनने का ढोंग कर रहे हैं। कहते हैं कि हर जिले में अधिकारियों की टीम बनाकर समितियों के रिकॉर्ड की पड़ताल कराई जाएगी। रिकॉर्ड नहीं मिला तो अधिनियम की धारा 57 के तहत पुलिस और प्रशासन के अधिकारी समिति पदाधिकारी के घर पर सर्चिंग करेंगे। इसमें भी दस्तावेज नहीं मिलते हैं तो नए सिरे से रिकॉर्ड तैयार करवाया जाएगा। वहीं, पात्र सदस्यों को भूखंड दिलाने के लिए अभियान चलाया जाएगा। इसके लिए खुला मंच जैसे कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगे। ऊपर से डंडा चला तो सक्रिय हो गया पूरा विभाग। लेकिन सरकार में बैठे लोगों
को निश्चित तौर पर यह देखना होगा कि यह नौबत कैसे आई। जमीनों की बात है तो सहकारिता विभाग के साथ ही नगर निगम और जिला प्रशासन के अधिकारियों की नजरों के सामने ही अवैध अतिक्रमण कैस होता रहा? अवैध कब्जों की शिकायत भी होती है, क्यों कार्रवाई नहीं की गई? पटवारी, राजस्व निरीक्षक मैदान में घूमते हैं, इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं दी गई? तमाम सवाल है, कमलनाथ जी, बिना विभागीय मिलीभगत के कोई माफिया नहीं बनता।
---
अफसरों की मदद के बिना नहीं बनते माफिया."!