बदल दें अब इस विश्वविद्यालय का नाम


माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम बदलने का समय आ गया है। मेरे मत में इसका नया नाम मक्खनलाल चतुर वेदी राष्ट्रीय धृष्टकारिता एवं अनाचार विश्वविद्यालय कर दिया जाना चाहिए। अब यहां वही टिक सकता है जो मक्खन लगाकर अपने लिए वहां सुरक्षित वेदी जमाने में चतुर हो। जो वहां चल रहे ध्रष्ट कारनामों एवं अनाचारों पर मौन साधे रहे। गलत का विरोध करने वालों को संघी बताकर यंू जताए गोया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध होना महा-गुनाह हो गया है। विचारधारा के जिस धरातल पर वामी होना गुनाह नहीं है तो संघी होने में कहां से बुराई ढुढ़ी जा रही हैं।


एक साथ 23 विद्यार्थी निष्कासित कर दिये गये। सुनवाई का कोई मौका दिये बगैर। उनका गुनाह यह कि उन्होंने विश्वविद्यालय की चारागाह में नियम विरुद्ध शामिल किये गये चार एडजंक्ट प्रोफेसरों में दो दिलीप मंडल, मुकेश कुमार की गलत गतिविधियों का विरोध किया। इस निर्णय के पीछे छिपे गलत मंसूबों को तमाम अखबारों ने आज उजागर कर दिया है। कुलपति दीपक तिवारी के सामने हुए हंगामे में बमुश्किल दस छात्र शामिल थे, तो बाकी के तेरह कहां से इसमें घुसा दिये गये? पुलिस शांतिपूर्वक धरना दे रहे छात्रों को घसीटते हुए ले गयी, लेकिन उलटा इन्हीं आंदोलनकारियों पर कार्रवाई कर दी गयी। 'वक्त है बदलाव का' वाले कमलनाथ के मुंह में तो जैसे दही जम गया है। क्यों ऐसा नहीं हुआ कि सोशल मीडिया पर वर्ग-विशेष के विरुद्ध लगातार उलटी कर रहे मंडल तथा कुमार से सफाई मांगी गयी? क्यों नहीं निष्कासित छात्रों को उनका पक्ष रखने का अवसर दिया गया? विश्वविद्यालय की अनुशासन समिति का फैसला अनुशासहीनता का वह कृत्य है, जिसे दमनकारी एवं विभाजनकारी नीतियों का साफ परिचायक कहा जा सकता है। विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक तिवारी को वरिष्ठ पत्रकार और सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी ने पत्र लिख कर कुछ सवालों का जवाब चाहा है। विजय इसी विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि आपकी विचारधारा कुछ भी हो सकती है लेकिन एक प्राध्यापक के तौर पर तो मर्यादा प्राथमिक है। मनुस्मृति पर चरण पादुका रख कर कौन क्या सिद्ध कर रहा है? पत्रकारिता संस्थान में यह कौन सी साधना आरंभ हो गई है? यह नए ऋषिगण कौन सी सिद्धी प्राप्त करने यहां पधारे हैं? जातिगत घृणा के विचार बीज जिसके मस्तिष्क में उर्वर है, उनकी एक विश्वविद्यालय में क्या भूमिका? वह भी माखनलाल चतुर्वेदी जैसे श्रद्धेय सेनानी के पवित्र नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय में? विजय के सवाल गंभीर हैं। जवाब का उन्हें इंतजार है।


 यहां एक दोगलापन भी देखिए। दिल्ली में जामिया के हिंसक विद्यार्थियों के समर्थन में आंसू बहाने  वाले माखनलाल यूनिवर्सिर्टी के मामले में चुप्पी साध गये हैं। जो इन छात्रों का समर्थन कर रहा है, उसे सोशल मीडिया पर गरियाने की हद तक प्रताड़ित एवं लांछित करने के जतन हो रहे हैं। यहां तक कि निष्कासित विद्यार्थियों के उपनाम में शुक्ला या सिंह जैसे जिक्र को लेकर भी यह प्रचारित करने का जतन हो रहा है कि कार्रवाई सही है। नि:संदेह विश्वविद्यालय में अनुशासहीनता बर्दाश्त  नहीं की जाना चाहिए। लेकिन अनुशासनात्मक कार्रवाई का पैमाना भी तो तय हो। इस देश की अदालत कहती है कि सौ गुनाहगार बरी हो जाएं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। तो फिर देश के हृदय प्रदेश की राजधानी में बेगुनाही साबित करने का अवसर दिए बगैर गुनाहगार ठहरा देने के कृत्य को कैसे सहन किया जा सकता है?


निश्चित ही अनुशासन समिति किसी ऊपरी दबाव में थी। दीपक तिवारी जितने बेहतरीन एवं सुलझे हुए शख्स और पत्रकार हैं, उस आधार पर मेरा पूरा यकीन है कि दिल पर पत्थर रखकर ही उन्होंने इस निर्णय पर मौन साध रखा है। पत्रकारिता की पढ़ाई मैंने भी की है और दीपक तिवारी ने भी। हम सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के कई छात्र भोपाल में अरसे से पत्रकारिता कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इस कार्रवाई का दीपक तिवारी शायद चाहकर भी विरोध नहीं कर पाए होंगे। लेकिन इस डर की वजह से जिन छात्रों का करियर दांव पर लग गया है, उनका अब क्या होगा? आने वाले समय में इस संस्थान में जिस तरह की गतिविधियों के लिए रास्ता खोल दिया गया है, उसके चलते यहां का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। अब एक विशेष किस्म की विचारधारा इस संस्थान की शिराओं में सतत रूप से जहर घोलती रहेगी और उसका विरोध करने वालों को फिर निष्कासन की कार्रवाई कर चुप करा दिया जाएगा। छात्रों के निष्कासन का यह निर्णय किसी भी रूप में सही नहीं है। प्राकृतिक न्याय की जो हत्या भोपाल की की गयी है, उसकी निंदा के लिए सही शब्द भी नहीं मिल पा रहे हैं। पता लगना चाहिए कि कुलपति दीपक तिवारी इस मसले पर क्या सोच रखते हैं। नहीं तो यह अकेले विश्वविद्यालय के लिए ही नहीं, दीपक तिवारी के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण ही होना चाहिए। एक अच्छा भला पत्रकार एक महान सेनानी के नाम पर बने विश्वविद्यालय पर बट्टा लगने का कारण बन रहा है।