टि्वटर पर मेरा एक सुप्त एकाउंट है। कभी आता-जाता नहीं। लेकिन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के शोरगुल को सुना तो कुछ ट्वीट देखे। एक में मनुस्मृति के चित्र पर चरण पादुकाएं रखकर कुछ लिखा गया है। दूसरे संदेश भी जातिगत विद्वेष और घृणा के हैं, जो यहां-वहां से तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों को बेइज्जत करने के लिए हैं और ये सब उत्तरप्रदेश या बिहार के जातिगत राजनीति करने वाले किसी पेशेवर नेता के ट्वीट नहीं हैं। ये विश्वविद्यालय के अध्यापकों के मस्तिष्क से उपजे महाविचार हैं। विश्वविद्यालय जेएनयू नहीं है। यह मध्यप्रदेश मूल के कवि और महान सेनानी माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर स्थापित है, जो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए है। करीब तीन दशक की यात्रा में इस विश्वविद्यालय ने कई उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन यह अध्यापकों और विद्यार्थियों पर एफआईआर, विद्यार्थियों के थोक निष्कासन की सुर्खियां पहली बार आईं और अब यह दलित चेतना का एक अनूठा अभ्यारण्य बनने की ओर बढ़ रहा है।
विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थी देश के हर मीडिया हाऊस में ऊपर से नीचे तक स्थापित हैं। रेडियो, टीवी, प्रिंट और अब डिजीटल कोई ठिकाना ऐसा नहीं है, जहां विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थी न हों। बेहद सामान्य परिवारों से आए हर जाति-धर्म के विद्यार्थी यहां आए, पढ़कर निकले। किसी अध्यापक ने कभी किसी क्लास में यह आभास नहीं होने दिया कि कौन किस जाति का? कहां की मनुस्मृति और किस चैनल या अखबार में कौन दलित, कौन ब्राह्मण। हमने भी पिछले 25 सालों में टीवी और प्रिंट में काम करते हुए शायद ही इस नजरिए से कभी देखा हो कि कौन किस जाति का? हमारे आसपास हर जाति-मजहब के लोग थे। डेस्क पर भी, रिपोर्टिंग में भी। ज्यादातर दूरदराज गांव-कस्बों से आए हुए लिखने-पढ़ने के शौकीन, जिन्हें सरकारी नौकरियों का कोई आकर्षण नहीं था।
चौबीस घंटे के टीवी चैनलों के आने के पहले जब अखबारों में मामूली वेतन की बेगारी जैसा काम सालों-साल तक करना होता था। टिके रहने का संघर्ष था। उससे ज्यादा खुद को साबित करने का। आगे बढ़ने के लिए यहां किसी को कोई जातिगत आरक्षण जैसी गलियां नहीं थीं। कई ऐसे युवा भी थे, जो बहुत मामूली अंकों के फर्क से सिविल सर्विसेस के इम्तहानों में पीछे रह गए थे। वे सवर्ण थे, लेकिन शांत भाव से पत्रकारिता या जनसंपर्क के कोर्स करके संघर्षपूर्ण करिअर की शुरुआत यहां से कर रहे थे। उनके मन में किसी के प्रति कोई जातिगत विद्वेष मैंने कभी नहीं देखा। उल्टा वे मानते थे कि गांवों में ऊंचनीच का भेद काफी गहरा रहा है इसलिए यह कुछ हद तक जरूरी तो है लेकिन इसका आधार आर्थिक होना चाहिए, एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में किसी को नहीं मिलना चाहिए, प्रमोशन में क्यों मिलना चाहिए और समय-समय पर इसकी समीक्षा होनी चाहिए।
डॉ. नंदकिशोर त्रिखा, कमल दीक्षित, उप्पल मैम और श्रीकांत सिंह से लेकर बाहर से पढ़ाने के लिए आने वालों में प्रभाष जोशी, अरुण शौरी, वेदप्रताप वैदिक और माधवकांत मिश्र जैसे नामचीन लोग थे, लेकिन उन्होंने पत्रकारिता के आदर्श तरीके बताए, लिखने के हुनर पर बात की और मुद्दों की गहरी पड़ताल पर जोर दिया। कभी कोई जाति या मजहब का विषय ही नहीं आया। हमें नहीं पता हमारे बगल में बैठने वाली राखी या स्मृति किस जाति की थीं और आशुतोष या श्यामलाल किस धर्म को मानते थे या किसी को नहीं मानते थे। हो सकता है उनकी कोई वैचारिक निष्ठाएं रही भी हों, लेकिन कभी पढ़ाई के दौरान यह झलका नहीं कि ऐसा कुछ है भी।
मैं हैरान हूं कि अपने नाम के आगे खुद को प्रोफेसर लिखने वाले कुछ आचार्यों के मस्तिष्क में जातियों का दुर्गंधयुक्त कूड़ा ऐसा ओवरफ्लोे है कि वे विश्वविद्यालय में अपनी अनियमित कक्षाओं से भी उसे बचाकर नहीं रख पा रहे। उन्हें यह अहसास भी नहीं है कि अब वे कहीं बैठकर संपादकीय नहीं लिख रहे हैं, एक नई पीढ़ी को गढ़ने के गंभीर काम में लग गए हैं। अभी जुमा-जुमा चार-छह महीने ही हुए होंगे और यह रायता फैला बैठे हैं। क्या जरूरत थी इसकी? यहां पढ़ाते हुए वे थोड़ा मर्यादा में रह लेते। बाद में दिल्ली लौटकर वैचारिक विष की गांठ खोल लेते। अभी देश में कहां मनुस्मृति री-लांच हो रही है या मनु महाराज के नाम पर कोई विश्वविद्यालय स्थापित होने की घोषणा हुई है, जो ये अमूल्य ट्वीट फैंके गए। विश्वविद्यालय में यह कौन सी साधना शुरू हो गई है? ये कौन ऋषि-मुनिगण आ गए हैं, जो जातियों की सिद्धि प्राप्त कर रहे हैं और अपना महत्वपूर्ण ज्ञान पत्रकारिता के विद्यार्थियों को पेल रहे हैं।
क्या कोई हिम्मत कर सकता है कि किसी धर्म की पुरानी पोथी पर एक चरण पादुका का चित्र ट्वीट करके अगली सुबह जीवित रह पाए? क्या यह इस देश की अथाह सहिष्णुता का प्रमाण नहीं है कि इस घृणित काम के बावजूद विद्यार्थी निष्कासित हैं और आचार्य सुरक्षित हैं। क्या जातपात में बांटने वाली संसार की एकमात्र और आखिरी किताब यही है, जिस पर जूता रखा गया? मैंने दूसरी किताबें एक से अधिक बार पढ़ी हैं, जो दूसरों की मान्यताओं का हिस्सा हैं। दादा माखनलाल के नाम को कलंकित करने आई माई के लालों की इस मंडली को चुनौती देता हूं कि वे हर पन्ने पर अपने से असहमत हर आदमी को बेरहमी से कत्ल करने का हुक्म देने वाली ऐसी किसी दूसरी किताब पर चरण पादुकाएं रखकर दिखाएं! अगली सुबह ही उनकी तस्वीर पर माला टंगी मिलेगी।
माननीय कुलपतिजी आप कहां हैं?