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कल मैंने बेटी दीपिका पर क्या लिख दिया तमाम बेटे नाराज हो गए ,उन्हें न मेरा लिखना सुहा रहा है और न दीपिका का जेएनयू जाना।सबके सब दीपिका और उसकी आने वाली फिल्म 'छपाक ' के पीछे पड़ गए हैं । पछियाया तो उन्होंने मुझे भी लेकिन मै किसी की पकड़ में नहीं आया ,और शायद आऊंगा भी नहीं ,क्योंकि मेरा रास्ता एकदम अलग है ।
दरअसल दीपिका मोबाइल युग में जन्मी है और इस युग की पीढी बहुत समझदार है ,उसे समझाने की जरूरत नहीं पड़ती।इस पीढी में जो लोग शिक्षा से विलग रह गए वे ज्यादातर राष्ट्रवादी हो गए हैं,उनके पास मोबाइल के जरिये युद्ध करने के अलावा कोई दूसरा काम बचा ही नहीं है ।मोबाइल पर आजकल पता नहीं कितने विश्व-विद्यालय सक्रिय हैं जो इसी नई पीढी का ज्ञानवर्धन कर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन उन्हें अपेक्षित कामयाबी हासिल नहीं हो पा रही है ।
मोबाइल पीढी को समझना होगा कि उसे जितना दिया जा रहा है उससे कहीं ज्यादा छीना जा रहा है। मोबाइल पीढी के नेता देते कम लेकिन ज्यादा हैं ठीक मोबाइल की ही तरह ।हमारे मुंबई के एक उम्रदराज लेखक श्री महावीर प्रसाद अग्रवाल [नेवटिया] बताते हैं कि ये मोबाइल बहुत कुछ खा-पी चुका है ।मोबाइल ने सबसे पहले हाथ घड़ी खाई।यानी कलाई को सूना कर दिया।अब कोई सूर्यभानु गुप्ता आपको आगाह नहीं कर सकते कि-'अपनी घड़ियां सम्हालकर बांधो,भीख देगा न एक पल कोई '।
कहते हैं कि मोबाइल ने आदमी से हाथ घड़ी के बाद उसकी सबसे विश्वस्त साथी टार्च भी छीन ली ,मोबाइल टार्च का काम भी खुद ही करने लगा ।छीनने का कर्म शुरू हुआ तो रुका ही नहीं क्योंकि मोबाइल का पेट तो कुम्भकर्ण के पेट जैसा है।खाता ही जाता है लेकिन भरता ही नहीं। घड़ी और टार्च के बाद मोबाइल ने आदमी के हाथ से किताब भी छीन ली ।किताब ही नहीं छीनी कैमरा भी छीन लिया,,टेप रिकार्डर भी खा गया चुके से ।इस छीना झपटी में हमारी युवा पीढ़ी विपन्न होती गयी और उसका इस्तेमाल नेताओं ने 'मिस्ड काल' करने के लिए करना शुरू कर दिया ।
हमारी सरकारें युवा पीढ़ी को रोजगार देने के बजाय ऐसे-ऐसे स्मार्ट फोन दे रहीं हैं जो अब आदमी का सुकून छीन रहे हैं,रिश्तों को खा रहे हैं,मेल-मिलाप खा गए हैं ये और तो और हमारा समय भी खा चुके हैं मोबाइल ।हमारे डाक्टर साहब तो कहते हैं कि मोबाइल ने हमारी याददाश्त और तंदुरुस्ती तक खा ली है और हमें इसका अहसास तक नहीं है ।हम मोबाइल के दीवाने होते जा रहे हैं ।वो हमें अपना दीवाना बनाता ही जा रहा है ।हमारी दीवानगी सारी हदें पार कर चुकी है ।
कहते हैं कि पहले जब फोन तार से बंधा था,तब हम आजाद थे और जब से हमने फोन को तार से आजाद किया है हम उसके गुलाम हो गए हैं यानि इस थम्ब जनरेशन में सारा काम 'टच ' से चल रहा है लेकिन कोई किसी के 'टच ' में नहीं हैं ।ये एक तरह की अनटचेबिलिटी '[अस्पृश्यता]है जो समाज को तहस-नहस कर रही है । अब हम सब टच स्क्रीन के भरोसे हैं ,हमारा आपस में कोई टच नहीं है और इसी का नतीजा है कि दीपिका हमारी दुश्मन है,जेएनयू के छात्र देशद्रोही हैं और उनके समर्थन में खड़े होने वाले पाकिस्तानी ।
बहरहाल जो है ,सो है लेकिन हमें जागना चाहिए ,देश सबके लिए पहले है इसलिए हमें देश की फ़िक्र करना चाहिए कसी सत्ता की नहीं।सत्ताएं तो आती जाती रहतीं है ,आगे भी आती-जाती रहेंगी लेकिन देश स्थाई चीज है जो कहीं नहीं जाएगा ।सत्ता के खिलाफ खड़े होने वाले लोग भी कहीं नहीं जायेंगे यहीं रहेंगे भले ही मोबाइल युग कितनी भी कोशिश कर ले ।इसलिए नीर-क्षीर विवेक से काम लीजिये ।बहकावे से बचाइएअपने आपको ,इस देश में कोई देशद्रोही नहीं है सिवाय कुर्सी के ।उससे जुड़े लोग ही देशद्रोह और राष्ट्रवाद की अगरबत्तियां जला रहे हैं ।इनसे उठने वाला धुंआं स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं ।इस देश में बेटे और बेटियां बराबर हैं ,और बराबर ही रहेंगी ,किसी के समर्थन या विरोध से ये बराबरी समाप्त नहीं हो सकती ।
@ राकेश अचल
नाजायज है बेटों की नाराजगी