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दिल्ली के ढंगों ने एक बार फिर धर्म ,अधर्म और राजधर्म को बहस के केंद्र में ला दिया है। दिल्ली दंगों के बाद कांग्रेस ने भाजपा सरकार को राजधर्म की याद दिलाई तो भाजपा सरकार के एक मंत्री ने नथुने फुलाते हुए कहा कि-' कांग्रेस सदर श्रीमती सोनियां गांधी हमें राजधर्म न सिखाएं बल्कि राजधर्म के आईने में खुद अपना चेहरा देखें '।टीवी चैनलों पर भाजपा सरकार की ये टिप्पणी बार-बार दिखाई जा रही है ,क्योंकि टीवी चैनलों का 'राजधर्म' भी यही है ।
मुझे याद है तो आपको भी याद होगा ही कि सबसे पहले शायद 2002 के गुजरात दंगों के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दबी जुबान से व्यथित स्वर में 'राजधर्म'निभाने की सलाह दी थी किन्तु खुद राजधर्म निभाते हुए न तब गुजरात सरकार को बर्खास्त किया था और न मुख्यमंत्री को बदला था ।ऐसा करना आसान नहीं होता ।पंडित जी शायद नहीं जानते थे कि दंगे ही सरकारों का 'राजधर्म' हो चुके है ।
देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए देशव्यापी दंगों के समय किसी ने तत्कालीन सरकार को 'राजधर्म 'निभाने का मशविरा नहीं दिया था ।तब कोई विपक्ष राष्ट्रपति के पास तत्कालीन सरकार को 'राजधर्म 'याद दिलाने नहीं गया था ।हालाँकि जाना चाहिए था ।किसी भी देश में किसी भी सरकार का राजधर्म क्या होगा ये जनता नहीं सरकार खुद तय करती है लेकिन भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र है वहां रामराज की कल्पना के तहत ही राजधर्म की बात की जाती है ।सबका मानना है कि 'राजधर्म 'तो -'मुखिया मुख सो चाहिए,खान-पान में एक 'वाला राजधर्म ही हर सरकार का राजधर्म होना चाहिए ।लेकिन दुर्भाग्य से अब तक ऐसा हुआ नहीं है ।सबने आपने-अपने ढंग से 'राजधर्म 'कि व्याख्या की है ।
बीते सात दशक में देश के भीतर धर्म की व्याख्या ही बदल गयी है ।सबका धर्म बदल चुका है। जनता का भी और सरकार का भी ।लेकिन कोई अपने धर्म पर टिका नहीं है। सब अपनी सुविधा से अपने-अपने धर्म में संशोधन करते आ रहे हैं ,यानि धर्म देश के संविधान की तरह लचीला हो गया है ।जब चाहे और जैसे चाहे इसे बदला जा सकता है ।अब सरकार का राजधर्म 'सबका साथ,सबका विकास'है लेकिन इस धर्म को भी सही ढंग से पालन नहीं किया जा रहा ।जो साथ नहीं है उसे राष्ट्रद्रोही कह कर दंगों के जरिये सबक सिखाया जा रहा है ।ये आरोप नहीं है,प्रमाण ही है ,अन्यथा देश में एक मजबूत सरकार के रहते उसकी नाक के नीचे दिल्ली में इतना बड़ा दंगा हो सकता था ?
देश में मौजूदा संदर्भ में अब नेताओं के मुंह से 'राजधर्म' की बात सुनकर हँसी आती है ,क्योंकि कोई तो दूध का धुला नहीं है ! केवल जनता है जो धर्म के आधार पर चिन्हित कर अलग-अलग ध्रुवों में बांटी जा रही है और दंगे इस ध्रुवीकरण का सबसे आसान उपाय हैं ।सियासत में ध्रुवीकरण के बिना किसी भी दल का काम ही नहीं चल रहा हालांकि हाल के दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों से ये जाहिर हो चुका है कि सियासत के लिए ध्रुवीकरण की कोई जरूरत नहीं है ।जरूरत है तो 'राजधर्म 'के निर्वाह की ।दिल्ली के डनगों के बाद यदि सरकार मानती है कि उसके विरोधियों की संख्या कम हो जाएगी या लोग सरकार के कामकाज से असहमति जताना बंद कर देंगे तो ये कोरी गलतफ़हमी है ,ऐसा न पहले कभी हुआ है और न आगे कभी हो पायेगा ।
अपनी स्मृति पर जोर देता हूँ तो पाता हूँ कि देश में दंगे तो आजादी के समय से होते आये हैं किन्तु कभी,किसी ने इन दंगों को लेकर किसी सरकार को 2002 से पहले राजधर्म की याद नहीं दिलाई थी ।ये दुःसाहस अटल जी ने ही किया था और तब से अब तक उनके 'राजधर्म'के जुमले का सभी सियासी दल अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर रहे हैं। दुर्भाग्य ये है कि तब से अब तक 'राजधर्म'पर अडिग रहने का साहस किसी ने नहीं दिखाया ,हाँ लोगों ने अपने सीने का साइज जरूर दिखाया ।मुझे हैरानी होती है कि जब देश के पास 56 इंच का सीना रखने वाले नेता हैं तब देश में वो भी देश की राजधानी में इतने विकराल और सुनियोजित दंगे कैसे हो जाते हैं ?क्या सरकार की 'एंटीजेंस'पूरी तरह नाकाम हो चुकी है या फिर उसने अपनी मशीनरी को दंगे करने की खुली छोट दे रखी है ।सरकार ने राजधर्म निभाना तो दूर दिल्ली के दंगों की न्यायिक जांच करने का साहस तक नहीं दिखाया ,ऐसे में सरकार से' राजधर्म' की अपेक्षा करना ही गलत है ।
अब सरकारों को राजधर्म सीखने की जबाबदेही जनता की ही है।
जनता आने वाले दिनों में जब भी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करे तब देखे कि वो किसे चुन रही है ?उसके वोट से ही ये तय होगा कि देश की सरकारें 'राजधर्म' का पालन करेंगी या नहीं।जनता को ये जान लेना चाहिए कि एक ही गलती को बार -बार दुहराने के नतीजे बेहद गंभीर होते हैं ।दिल्ली के दंगों की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए जरूरी है कि जनता अपना 'राजधर्म 'ढंग से निर्वाह करे और जिसे इन डनगाओँ के लिए दोषी समझती हो उसे चुनाव के रन में सबक सिखाये,इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता फिलहाल दिखाई नहीं देता ,क्योंकि आज ये तय कर पाना कठिन है कि कौन धर्मरत है और कौन अधर्मी।राजधर्म तो दूर की कौड़ी है ।
@ राकेश अचल
धर्म,अधर्म और राजधर्म *