दुनिया का मेला ,मेले में कड़की  ******राकेश अचल ******

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मेला-मदार का महत्व भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में है ,लेकिन भारत में मेले लगातार उजड़ रहे हैं,उनका मूल स्वरूप बर्बाद हो रहा है। मेलों की उपलब्धि कारोबार के आंकड़ों को माना जा रहा है ,लेकिन मेलों से जो गायब हो रहा है उस पर किसी की नजर नहीं है ।मेलों की लोकचेतना अब समाप्त होने के कगार पर है ।फिलहाल तो मै ग्वालियर के माधवराव सिंधिया व्यापार मेले को लेकर चिंतित हूँ ।
ग्वालियर का मेला ११५ साल पुराना है।ग्वालियर के तत्कालीन शासकों ने सूखाग्रस्त किसानों की मदद के लिए शुरू किये इस मेले के पास आज एक स्थाई अधोसंरचना है लेकिन व्यापक दृष्टिकोण न होने से ये मेला ांखड़ों में समृद्ध हो रहा है किन्तु वास्तव    में उजड़ रहा है। ।पहले ये मेला एक माह से भी कम अवधि का होता था लेकिन इसकी रौनक पूरे साल यादों में बसी रहती थी,अब इस मेले को पूरे दो महीने तक खींचा जाता है किन्तु अब मेले की रौनक का कहीं कोई जिक्र नहीं होता ,क्योंकि इस पारम्परिक मेले पर कारोबार बुरी तरह हावी हो गया है।मेले के आयोजक केवल आंकड़ों में उलझे हैं ।
ग्वालियर मेला जब तक व्यापार मेला नहीं बना था ,तब तक इसका सरोकार स्थानीय और क्षेत्रीय जन-मानस से गहरे तक जुड़ा था लेकिन जैसे ही इसे व्यापार मेले में तब्दील किया गया वैसे ही धीरे-धीरे मेले से जन-मांस के सरोकार कम हटे गए और आज स्थिति ये है की मेले में भागीदारी करने वाले कारोबारी जनता की जरूरतों को नहीं बल्कि अपने फायदे की सुरक्षा में लगे हैं ।इस साल ही मेले ने शासन द्वारा वाहनों की खरीद पर दी गयी कर छूट के कारण मेले के कारोबार को ९४५ करोड़ के आसपास तो पहुंचा दिया लेकिन बाक़ी के दुसरे सारे सेकटर सिरे से समाप्त कर दिए गए । केवल ऑटो सेक्टर के कारोबार को ही पूरे मेले का कारोबार नहीं कहा जा सकता ।दूसरें सेक्टरों में बहुत कम काम हुआ है 
मेला जनता के मनोरंजन और लोकसंस्कृति का संवाहक माना जाता था ,किन्तु अब ग्वालियर के इस मेले से ये दोनों चीजें गायब हैं ।मनोरंजन के लिए मेले में आने वाले समूह प्रोत्साहन न मिलने से अब यहां आते नहीं हैं और मेला जनता के पैसे से जो सांस्कृतिक आयोजन करता है उसमें पैसे की बंदरबांट के अलावा और कुछ नहीं होता ।मेले के सांस्कृतिक कैलेंडर को देखकर मेरी इस बात की पुष्टि की जा सकती है ।इस साल तो जन प्रतिनिधियों के दखल के बाद मेला प्राधिकरण को एक फूहड़ कार्यक्रम रद्द करना पड़ा ।
ग्वालियर मेला प्राधिकरण एक लम्बे आरसे बाद जनता के लोगों के हाथों में आया लेकिन इसका नेतृत्व व्यापारियों के हाथ में ही रहा ।ये व्यापारी भी ऐसे जिनका लोक से कोई सम्पर्क नहीं है ,वे केवल कारोबार करना जानते हैं ,उन्होंने कारोबार किया भी यहां तक की मेले के फैसिलिटेशन सेण्टर को भी किराये पर उठा दिया ।मेले में जन सुविधाओं को विश्व स्तर का तो छोड़िये राष्ट्रीय स्तर तक का नहीं बनाया जा सका ।मेले में जन -जागरण के लिए आयोजित की जाने वाली शासकीय विभागों की प्रदर्शनियां मेले के समापन से कुछ समय पहले तक पूरी नहीं लग पायीं। मेले का मुख्य आकर्षण शिल्प बाजार   समन्वय के अभाव में एक माह से घटकर बीस दिन का रह गया ,और शिल्प बाजार के नाम पर जो बाजार सजाये गए वे जनता को अपनी और आकर्षित करने में नाकाम रहे ।
ग्वालियर व्यापार मेला को दिल्ली के प्रगति मैदान की तर्ज पर विकसित करने के स्वर्गीय माधव राव सिंधिया के सपने को तो मेला प्राधिकरण ने एक तरह से भुला ही दिया है। मेले की अधिकाँश जमीन पर अब मैरिज गार्डन उग आये हैं। मेले से बाल रेल गायब है ,और आज से नहीं वर्षों से गायब है ।मेले में दूसरा फैसिलिटेशन सेंटर बनाने के बारे में कोई सोच नहीं पाया यहां तक की जो है भी उसे भी ढंग से संधारित नहीं किया जा सका ।न सड़कों का डंबरीकरण किया जा सका और न विद्युत व्यवस्था को बदला जा सका ,यहाँ तक मेले के चौराहों की छतरियों की मरम्मत तक नहीं कराई जा सकी ।लेकिन सब मेले की कथित सफलता के लिए एक -दूसरें की पीठ थपथपा रहे हैं ।
मेले की बर्बादी के लिए पूर्ववर्ती सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं रही ।भाजपा की सरकार ने एक लम्बे समय तक मेला प्राधिकरण को कुछ ख़ास हाथों में देकर इसका विकास रोक दिया,फिर लम्बे समय तक मेला नौकरशाही के हाथों में आरहा। मेले के आयोजन के लिए 'प्रोफेशनल ''नजरिया अपनाने की हिम्मत प्राधिकरण के पास है ही नहीं। इसी साल मेले में दुकानों के ऑनलाइन आरक्षण के संकल्प को मेले में सक्रिय दूकान माफिया के दबाब में वापस ले लिए गया ।मेले की अवधि  भी इसी दबाव में बढ़ाई गयी ,जबकि और कहीं ऐसा नहीं होता ।मेले के आयोजन में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टि का घोर अभाव था और आज भी है ।सारा काम राजनीतिक और व्यक्तिगत हितों के संरक्षण,पोषण तक सीमित है ।
मैंने दुनिया के दो दर्जन से अधिक देशों में लगने वाले छोटे-बड़े अनेक मेले देखे हैं और मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि जैसे अधोसंरचना ग्वालियर मेले के पास है वैसी कम ही मेलों के पास है ,इसलिए इसका भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए ।यदि मेला प्राधिकरण के पास ज़ख्म लोग नहीं हैं तो आयोजन के लिए आउट सोर्सिंग का इस्तेमाल भी किया जा कसता है। मेले में पुलिस की जगह निजी सुरक्षा एजेंसियों की सेवाएं ली जा कस्तीन हैं। मेले को बाबूगीरी  और भाई-भतिजाबाद से मुक्त कराये बिना ये सम्भव नहीं है ।उम्मीद की जाना चाहिए कि भविष्य में मेला प्राधिकरण इस दिशा में बिना किसी दबाव के अपना काम करने के बारे में सोचना शुरू करेगा ।
@ राकेश अचल