*अपने से सीधी जुडी घटना से भी श्री दिग्विजय सिंह कभी विचलित नही हुए, अविचलित रहे। वे किसी और हाड़-मांस के बने हैं, जो निष्ठा है वह है, जो आस्था है वह है।* 2003 के जिस विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व की कांग्रेस की पराजय हुई, उस चुनाव को मैंने बहुत नजदीक से देखा है। तब मैं दैनिक भास्कर, भोपाल में सम्पादकीय समन्वयक था। 2002 में भोपाल में एक बड़ी दलित कांफ्रेंस हुई। देश भर से दलित बुद्धिजीवी और विचारक जुटे। दूसरे समाजों के भी बुद्धिजीवी और मनीषी उनसे बातचीत की प्रक्रिया में थे। उसका जो निचोड़ निकला, वह भोपाल घोषणापत्र के नाम से जाना जाता है। वह दलितों, शोषितों, वंचितों के सशक्तिकरण का एक अप्रतिम दस्तावेज है। वह रोटी, कपड़ा, मकान बांटने के बदले उन्हें सीधे-सीधे अर्थव्यवस्था में भागीदार बनाने की पैरवी करता है। और ऐसा करने को राज्य की जिम्मेदारी मानता है। इस कांफ्रेंस के सूत्रधार श्री दिग्विजय सिंह बने थे। वही आशा कि किसी अच्छे काम के लिए श्री दिग्विजय सिंह कभी मना नहीं करेंगे, अनेक दलित -अदलित बुद्धिजीवियों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और परिवर्तनकामियों को भोपाल खींच लाई थी। इस कांफ्रेंस ने पूरे देश के सामने ही चुनौती खड़ी की कि भोपाल घोषणापत्र को लागू कौन करेगा ? श्री कांशी राम और सुश्री मायावती ने भी कभी इस तरह के किसी कार्यक्रम की कोई बात नहीं की थी। बात फिर घूम-फिर कर उसी बात पर आ गयी कि श्री दिग्विजय सिंह ही इसे लागू भी करें।
2002 में ही मध्यप्रदेश में दलित एजेंडा लागू हुआ। वह अपने समय का बड़ा ही क्रांन्तिकारी कदम था। उस समय दैनिक भास्कर में मैंने लगातार तीन दिन उसके पक्ष-विपक्ष की समीक्षा की। उस समीक्षा के साथ श्री दिग्विजय सिंह से हुई मेरी एक बातचीत भी छपी थी। चुनाव नजदीक थे, इसलिए सवाल स्वाभाविक ही था कि दलित एजेंडा चुनावी लाभ के लिए लागू किया गया है क्या? लेकिन उसका जो जवाब आया, हतप्रभ कर देनेवाला था। छापने के लिए नहीं कहा गया था, इसलिए छापा नहीं गया। मैं स्वयं जय प्रकाश जी के आन्दोलन से जुड़ा रहा हूँ। जनसत्ता में जिनके साथ काम करके मैंने राजनीतिक पत्रकारिता सीखी, वे श्री राम बहादुर राय, जय प्रकाश जी के आन्दोलन को जिन्होंने जन्म दिया, उनमें से एक रहे हैं। पर, 1977 के चुनाब