***
जैसे वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता,वैसे ही चुनाव किसी के लिए नहीं ठहरता ।ठहर भी नहीं सकता,क्योंकि चुनाव का सीधा वास्ता सत्ता से और सत्ता का वास्ता किसी से नहीं बल्कि सिर्फ सत्ता से होता है ।दिल्ली दंगों के बाद आपने बंगलों से बाहर न निकलने वाले लोग दिल्ली को अनाथ छोड़कर अपने-अपने काम में लग गए हैं ।देश के इस युग के सरदार पटेल बंगाल में चुनावी सभाएं कर रहे हैं और पंत प्रधान चित्रकूट के घाट पर फीते काट रहे हैं ।
कोई छोटा लेखक किसी बड़े आदमी को 'टारगेट ' नहीं कर सकता ।उसे ये अधिकार नहीं है ,इसीलिए मै भी किसी को टारगेट नहीं कर रहा,मै तो सिर्फ हवाला दे रहा हूँ,क्योंकि मुझे कुर्सी की नहीं ,,दिल्ली की चिंता है ।दिल्ली की चिंता सभी को है ,चाहे फिर वो दिल्ली का हो या न हो ,क्योंकि दिल्ली सबकी है। दिल्ली देश का दिल है,मान है,आन है शान है ।यही दिल्ली भी भी नालों से लाशें उगल रही है ।दिल्ली में अभी भी जलांध,सड़ांध आ रही है लेकिन दिल्ली के दिलवाले दिल्ली को उसके हाल पर छोड़कर बंगाल में ममता दीदी को चुनौतियाँ दे रहे हैं ,की वे वहां भी भाजपा की सरकार बनाएंगे ।
कोलकाता में अमित स्वर सुनकर मुझे नहीं लगता कि भाजपा दिल्ली में हारकर भी मन से हारी है।भाजपा को जली,अधजली दिल्ली से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा है। दिल्ली की तरह बंगाल जीतने का उसका उत्साह जस का तस है ।होना भी चाहिए क्योंकि यदि भाजपा हार गयी तो देश हार जाएगा ।भाजपा ने सबको मनवा दिया है कि भाजपा ही देश है और देश ही भाजपा ।दिल्ली जीतने वाले आप ,साप वाले तो भुनगे हैं ।वे जनता को मूर्ख बनाकर जीते हैं ।असल जीत तो जनता के हाथों हारकर होती है ।दिल्ली में भाजपा हारकर भी इसीलिए जीत गयी है ।अब उसे बंगाल जीतना है ,यूपी जीतना है ।इसीलिए तो बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे की आधारशिला रखी गयी है ।
चुनाव जीतने के लिए जितने जरूरी दंगे होते हैं,उतने ही जरूरी शिलान्यास भी होते हैं।।समझदार नेता इसीलिए ये दोनों काम लगातार करते रहते हैं।दिल्ली के दंगों का बंगाल के चुनाव से सीधा कोई रिश्ता हो या न हो लेकिन परोक्ष रूप से इन्हें हर चुनाव में भुनाया जाएगा ।इन दंगों के जरिये ये बता दिया गया है कि यदि सरकार की मुखालफत की तो दिल्ली की तरह ही नतीजे भुगतना पड़ेंगे ।
वक्त की नजाकत तो ये कहती है कि जब तक दिल्ली की आग शांत न हो जाती कोई, कहीं नहीं जाता।सब मिलकर दिल्ली के जख्मों पर मरहम लगते,दिल्ली अभी भी अफवाहों की चपेट में है ,लेकिन देश के जिम्मेदार नेता दिल्ली को अनाथ छोड़कर अपने-अपने अभियान में जुट गए ।दिल्ली कोई गलियों में वे लोग घूम रहे हैं जिनका धंधा ही मरते हुए लोगों को जीने की कला सिखाना है ।घायल दिल्ली को उन लोगों की जरूरत थी जिनके हाथों में दंगे रोकने की ताकत थी किन्तु वे सब लोग तो कोलकाता और चित्रकूट चले गए ! उनकी जरूरत दिल्ली को शायद कम कोलकाता और चित्रकूट को ज्यादा रही होगी ।
मुझे समझ में नहीं आता कि बात-बात में दूसरी जगह इंटरनेट जाम करने वाली सरकार ने दंगाग्रस्त दिल्ली में ये पाबंदी क्यों नहीं लगाईं,क्या सरकार चाहती थी कि दिल्ली में इंटरनेट का दुरूपयोग कर अफवाहे फैलाई जाती रहें ?सरकार यदि एहतियाती कदम उठा लेती तो शायद दिल्ली लहू -लुहान न होती,लेकिन अब लकीर पीटने से क्या हासिल ? अब लगता है कि दिल्ली भी किसी तरह मामूल पर लौट आएगी ही ।दिल्ली तो पहले भी कितनी बार उजाड़ी और बसाई गयी है ।दिल्ली को दर्द सहने का गहरा तजुर्बा है ।
मुझे अक्सर लगता है जैसे कि जैसे -'छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए ' होता है ठीक वैसे ही सियासत के लिए भी ये मुनासिब नहीं है कि वो किसी जलते,कराहते शहर के लिए अपनी पूरी सियासत को छोड़ दे ।कोई छोड़ता भी नहीं है ।
बीते सात दशकों से यही हो रहा है और शायद आगे भी ये सिलसिला जारी रहेगा क्योंकि संवेदनशून्य हो चुकी सियासत के पास धड़कने वाला दिल होता ही कहाँ है ।बात 'छोटे मुंह बड़ी ' जरूर है ,लेकिन झूठ शायद नहीं है।अगर हो तो आप उसे सही कर सकते हैं,आखिर मित्र हूँ आपका ।
@ राकेश अचल
किसी के लिए नहीं ठहरता चुनाव *****राकेश अचल *****