*******राकेश अचल *******
सुंदरकांड और मध्यप्रदेश के कुर्सीकाण्ड में कितना मेल है ।सुंदरकांड में विभीषण के रामदल में जाते ही रावणदल आयुहीन हो गया था ,ठीक वैसा ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होते ही कमलनाथ सरकार के साथ हो रहा है ।कमलनाथ सरकार प्राणवायु पर है लेकिन उसकी साँसें कब थम जाएंगी कोई नहीं जानता ,हाँ मुख्यमत्री कमलनाथ का आत्मविश्वास जरूर प्रणम्य है ।वे राजनीति के कोरोना वायरस के ताजा शिकार हैं
मध्यप्रदेश में सत्ता का स्थायित्व कभी समस्या नहीं रहा ।यहां दो दलीय शासन दशकों से चलता आ रहा है ।आपातकाल के बाद भी और आपातकाल के पहले भी यही स्थिति रही ,सिवाय 1967 के दलबदल को छोड़कर। शायद दलबदल की पचास साल पुरानी इस घटना ने ही मध्यप्रदेश को स्थायित्व की राह दिखाई थी लेकिन दुर्भाग्य से अब फिर मध्यप्रदेश अस्थिरता के चौराहे पर खड़ा है और सरकार को अस्थिर करने वाले लोग वीर भाव से खड़े नजर आ रहे हैं ।
सत्ता कोई नहीं छोड़ना चाहता,सत्ता जनता ही दिलाती है और जनता ही छुड़ाती है लेकिन कभी-कभी ये काम बकौल शिवराज सिंह चौहान विभीषण भी कर देते हैं ,लेकिन विभीषण के लिए ये काम रामकाज होता है ।शिवराज सिंह भले ही दलबदल करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को विभीषण कहें किन्तु सहृदय भाजपाइयों की नजर में वे साधु हैं ।मुख्यमंत्री कमलनाथ ने साधु सिंधिया की अवज्ञा कर अपनी हानि कर ली है ।जैसे रावण के दरबार से जैसे ही विभीषण ने कदम बाहर रखे थे वैसे ही रावण का वैभव खतरे में पड़ गया था ठीक वैसे ही सिंधिया के कांग्रेस से बाहर जाते ही कांग्रेस सरकार का वैभव खतरे में पड़ गया है ,लेकिन हकीकत ये है कि ये कल्पना मात्र है।न सिंधिया विभीषण हैं और न कमलनाथ रावण,दोनों सियासत के जीवित किरदार हैं और दोनों अपने-अपने अनुभव से काम कर रहे हैं ।नतीजा भले ही चाहे जो हो ।
कमलनाथ की जगह कोई और मुख्यमंत्री होता तो मुमकिन है कि सिंधिया के कांग्रेस छोड़ते ही इस्तीफा देकर मैदान छोड़ देता लेकिन कमलनाथ ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेलीं और इसीलिए पूरे दस दिन तक अपनी सरकार को बचाकर रखा है ।कमलनाथ का ही बूता है कि वे ज्योर्तिरादित्य सिंधिया,अमितशाह और नरेंद्र मोदी की साजिश को कम से कम दस दिन तक नाकाम करने में कामयाब रहे ।उन्होंने राजभवन को भी उसकी हैसियत दिखाई और 'सिंधिया ऐंड कम्पनी' को भी ।कमलनाथ सरकार को हटाने के लिए अंतत:भाजपा को सबसे बड़ी अदालत की शरण में जाना पड़ा और वहां से भी अभी नतीजे का इन्तजार है ।
पूरे अनाशक्त भाव से मै ये कह सकता हूँ कि कमलनाथ चार दशक बाद भी 'कालातीत' नेता नहीं हुए हैं ।वे पूरे दमखम से मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला कर रहे हैं ।उनके हनुमान दिग्विजय सिंह मैदान में अपनी जगह खड़े मोर्चा ले रहे हैं ।पराजय का कोई भी इन दोनों के चेहरे पर नहीं है भले ही वे हर तरह से हारे हुए नजर आ रहे हों ।संकट के बावजूद कमलनाथ सरकार ने पिछले दस दिन में पूरी सक्रियता के साथ सरकारी कामकाज किया है ।राजभवन से लगाईं गयी रोक भी उन्हें अपना काम करने से रोक नहीं पाई ।कमलनाथ सरकार का ये आत्मविशास कभी-कभी आतंकित करता है और कभी-कभी इसे देखकर रोमांच भी होता है ।
प्रदेश में किसकी सरकार रहे और किसकी न रहे ये काम हम जैसे छोटे कलमकारों का नहीं है। ये काम जनता के हाथ से निकलकर बिकाऊ और टिकाऊ विधायकों के हाथ में आ गया है ।पत्रकार न रैफरी हैं और न खिलाड़ी,वे दर्शक भी नहीं हैं ,उनके हिस्से में केवल समीक्षा और विश्लेषण होता है जो भविष्य के लिए संकेतक का काम करता है ।हम यही काम कर रहे हैं और पूरे यकीन के साथ कह रहे हैं की इस सदी का ये दलबदल लोकतंत्र में एक नयी दिशा तय करेगा ।
राजनीति में दलबदल का जो कोरोना वायरस 1957 में सामने आया था वो तमाम विधिक व्यवस्थाओं के बावजूद मरा नहीं ,बल्कि उसने अपने आप को हर समय किसी न किसी रूप में प्रकट कर लोकतंत्र को चाटने की कोशिश की ।इस वायरस का तोड़ शायद ही कभी खोजा जा सके,क्योंकि ये सबके काम का है ।आज भाजपा इसका लाभ ले रही है तो कल कांग्रेस ने भी इसे पाला-पोसा था ।इससे बचने के लिए एहतियात ही बरती जा सकती है ।कोई अदालत,कोई क़ानून इस वायरस को जड़-मूल से समाप्त नहीं कर सकता ।मध्यप्रदेश में स्थायित्व आज भी पहली जरूरत है ,सबको इसके लिए प्रार्थना भी करना चाहिए ।अगर ये प्रार्थनाएं नाकाम होतीं हैं तो प्रदेश को एक बार फिर राष्ट्रपति शासन और मध्यावधि चुनाव जैसी तकलीफों से गुजरना पड़ सकता है और इसका सारा दोष साधु विभीषण के सर जाएगा ।
@ राकेश अचल
राजनीति का कोरोना वायरस है दल-बदल