सवाल जमीर का है,बचा या  बिका ?


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कांग्रेस के युवा तुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया है ,अब वे शायद भाजपा में शरणार्थी बनकर शेष जीवन व्यतीत करें,लेकिन उनके इस कदम से मै कतई विचलित नहीं हूँ,मुझे अफ़सोस है तो सिर्फ इतना की ज्योतिरादित्य सिंधिया को  लेकर  मेरा  आकलन सही साबित नहीं हुआ।मुझे लगता था की वे बगावत नहीं करेंगे जबकि उन्होंने ऐसा कर दिखाया ।सिंधिया के इस कदम से मध्यप्रदेश में 1967 के राजनितिक घटनाक्रम की पुनरावृत्ति होती दिखाई दे रही है ।सिंधिया की बगावत से अब केवल एक ही सवाल अनुत्तरित रह जाता है की उन्होंने अपने जमीर को मरने   से बचाया  है या  फिर  अपना जमीर बेच  दिया  है ?
राजनीति में बगावत का सम्मान किया जाता है किन्तु दल-बदल को हेय दृष्टि से देखा जाता है ।ज्योतिरादित्य सिंधिया को शायद कांग्रेस के ही नेताओं ने बगावत के लिए विवश किया ।लोकसभा चुनाव हारने के बाद अवसाद का शिकार बने ज्योतिरादित्य सिंधिया को उम्मीद थी की विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी की सरकार प्रदेश में बनने के बाद उनके पराजय के जख्मों पर पार्टी शायद कोई नया दायित्व देकर मरहम रख देगी पर ये भी नहीं हुआ ।बीते सवा साल से ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश के वर्तमान  मुख्यमंत्री कमलनाथ और निवर्तमान मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह मिलकर ज्योतिरादित्य सिंध्या का मान -मर्दन कर,करा रहे  थे ।सिंधिया की पसंद से एक तबादला या नियुक्ति नहीं की गयी बल्कि उलटे उनकी उपेक्षा और की गयी ।
प्रदेश में सत्ता पाने के लिए छटपटा रही भाजपा  ने बीते वर्षों  में कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने की अनेक कोशिशें की किन्तु उन्हें कामयाबी नहीं मिली ।विधायकों की खदीद-फरोख्त के प्रयासों केबाद भी भाजपा को कोई कामयाबी नहीं मिली थी ।ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा की मन की मुराद को पूरा करा दिया ,कहते हैं की सिंधिया बारास्ता मोहन भागवत कांग्रेस से बाहर आये हैं और भाजपा में शामिल होने के लिए लालायत हैं ।वे भाजपा में कैसे और कितने खाप  पाएंगे,ये वे ही  जाने लेकिन हमारा  मानना है की वे जहां थे,वहीं ठीक थे ,और कभी न कभी उनके अच्छे दिन वापस आते ही ।
सिंधिया के पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने आपातकाल के बाद कांग्रेस की सदस्य्ता ली थी किन्तु हवालाकाण्ड के बाद उन्हें कांग्रेस स निकल दिया गया था,लेकिन वे बहुत जल्द कांग्रेस में वापस लौटाए  थे ।उन्होंने कांग्रेस में रहकर ही सद्गति पाई ।मुझे लगता था की  ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पिता के ही पदचिन्हों पर हीअनुशरण कसरेंगें किन्तु  उन्होंने ऐसा नहीं  किया । ज्योतिरादित्य अपने पिता के नहीं अपनी दादी के पद चिन्हों की चुना ।वे किस दल को छोड़ें या किस दल के साथ रहें ,ये उनका विवेक है,लेकिन हम यानी हमारी  जनता क्या मानती है ये मह्रत्वपूर्ण  है ।  
एक सिंधिया के कांग्रेस से बाहर जाने से कमलनाथ की सरकार और पार्टी  जाएगी या बचेगी ये तो फ्लोर पर ही पता चलेगा ,लेकिन हम ये जानते हैं की न तो अब 'सिंधिया इज कांग्रेस' है और न ही 'कांग्रेस इज सिंधिया' ।दोनों का अलग वजूद है जो देर-सबेर एक होता ही लेकिन यदि सिंधिया भाजपा में जाते हैं [जैसा की स्पष्ट संकेत है ] तो वहां  उन्हें परेशानी तो होगी  ही क्योंकि भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया राजवंश को कोर्निश करते -करते आजिज आ चुके हैं और वे भविष्य में सिंधियाओं की पालकी और खींचने के मूड में नहीं हैं । भाजपा में भी सिंधिया को शरणार्थी ही रहने वाले हैं ।भाजपा में उन्हें अपेक्षित समान मिलेगा  या नहीं मैं नहीं जानता लेकिन फिलहाल सिंधिया सियासत की सुर्खियों में हैं और अगले कुछ दिनों तक रहेंगे । बाद में जो होगा सो देखा जाएगा ।
भाजपा का एक धड़ा आरसे से सिंधिया की विरासत में 1857  के एक अध्याय को जोड़ते हुए हमेशा गरियाते रहे हैं यदि अब ज्योतिरादित्य सिंधिया वापस लौटे तो उनका इस्तकबाल कैसे हो पायेगा भले ही प्रधानमंत्री उन्हें अपनी कैबिनेट में शामिल कर  लें। भाजपा के खिलाफ सिंधिया की आक्रामकता को किस रूप में लिया जाएगा ,इस पर अभी कोई टीका  करना ठीक नहीं ।सिंधिया जहाँ भी रहें सिंधिया रहें ,जिस दिन वे अपना दिल टटोल कर देखें उन्हें अपने फैसले पर पछतावा नहीं होना चाहिए ।  
@राकेश   अचल