दरिंदगी के लिए हर हिस्सा पालघर जैसा  ****

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कोरोना के शोर में सब कुछ दब गया लेकिन 'मॉब लिंचिंग' जैसा शब्द पालघर में फिर से ज़िंदा हो गया ।पालघर में भीड़ द्वारा तीन साधुओं की नृशंस हत्या ने साबित कर दिया कि भीड़ की दरिंदगी देश के  किसी एक हिस्से में नहीं बल्कि यत्र-तत्र -सर्वत्र सब जगह है और इसे रोकने का कोई टीका अब तक नहीं बना है ।इस नृशसंता के लिए किसी से इस्तीफा मांगना या अपना सम्मान लौटाना अब कोई अर्थ नहीं रखता ।
देशव्यापी लॉकडाउन के रहते पालघर की सड़कों पर हत्यारी भीड़ कैसे प्रकट और कैसे उसने पुलिस की मौजूदगी में पंचदस अखाड़े के दो साधुओं और उनके ड्रायवर को पीट-पीटकर मार डाला ।ये अब जाँच का विषय बन गया है लेकिन वारदात के समय बनाये गए वीडियो किसी जांच के मोहताज नजर नहीं आते,इन वीडियो को देखकर साफ़ दिखाई देता है की भीड़ बौराई हुई थी। इस भीड़ में कोई विजातीय न था मरने वाले भी सजातीय थे ,इससे लगता है कि अब हम उस बर्बर युग में आ गए हैं जहां मनुष्यता का कोई मोल ही नहीं बचा है ।
पालघर की हत्यारी भीड़ इससे पहले हरियाणा,राजस्थान,मध्यप्रदेश में भी अपनी मानसिकता का परिचय दे चुकी है।इन वारदातों को जातियों के खांचे में रखकर देखने की जो गलती की गयी उसका ख़मयाज़ा देश आज भी भुगत रहा है और इस बात का सबूत दे रहा है की भीड़ की मानसिकता से हिंसा का एक अंश भी समाप्त नहीं हुआ है ।महाराष्ट्र पुलिस ने पालघर काण्ड के सिलसिले में 110  लोगों को गिरफ्तार कर लिया है ,इनमें 9  नाबालिग बच्चे भी हैं ,लेकिन सवाल ये ही है कि क्या ये सब सजा पा सकेंगे ?शायद  कभी नहीं,क्योंकि हमारी न्याय व्यवस्था में उतनी निर्ममता है ही नहीं जितनी कि भीड़ के मन में होती है ।
पालघर काण्ड को लेकर कोई हंगामा देश में सिर्फ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि देश कोरोना के कारण लाकडाउन की बंदिश  में है।ये हंगामा सिर्फ इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि इसके पीछे हमारी सोच सियासी है ।इस हत्याकांड को लेकर कोई एक विचारधारा और उससे पोषित व्यक्ति ही मुखर दिखाई दे रहे हैं जबकि ये समस्त मानवता के लिए एक मुद्दा है ।इसे किस जानिग-संग से जोड़कर देखना गलत बात है ।असल सवाल ये है कि क्या ये देह भीड़ को उसके अपराधों की सजा दिलाने की स्थिति में कभी आ भी पायेगा या  नहीं ।इस तरह की घटनाएं केवल ट्ववीट करने से समाप्त होने वाली नहीं है ।इन्हें समाप्त करने के लिए हमें हमारे क़ानून भी कठोर और समदर्शी बनाना होंगे ।
पालघर जिले के जिस गांव में ये निर्मम हत्याकांड हुआ वो एक आदिवासी बहुल गांव है।वहां स्माप्र्दायिकता का जहर नहीं भी हो लेकिन लोगों ने कार में सवार साधुओं को चोर समझकर रोका,पीटा और पुलिस की मौजूदगी में मार भी डाला ।जाहिर है कि इन आदिवासियों को न प्रदेश की पुलिस का भय है और न क़ानून का ।भीड़ के समाने पुलिस अक्सर निकम्मी साबित होती है।पुलिस के हाथ-पांव फूल जाते हैं,पुलिस अक्सर ऐसे मौकों पर गोली चलाना भूल  जाती है ।पुलिस जानती है कि भीड़ से उलझने के बजाय बचना ज्यादा सुरक्षित काम है। प्रशासन बाद में ज्यादा से ज्यादा निलंबन की कार्रवाई ही तो करेगा ! भीड़ तो जान ले लेगी ।
सब जानते हैं कि इस समय देशकाल पर पड़ा कोरोना का पर्दा हर पाप,हर असफलता,हर अन्याय ,हर अत्याचार ,हर नाकामी को छिपाने का अमोघ अस्त्र है ,इसलिए पालघर हत्याकांड भी क्षणिक चर्चाओं के बाद फाइलों में दबकर रह जाएगा ,क्योंकि कोई इस मामले का पीछा करने वाला नहीं है ,लेकिन मै बार-बार कहता हूँ  कि कोरोना की आड़ में ऐसे मामलों को दबाने के बजाय जो दोषी निकलें उन्हें दण्डित करे और एक ऐसी मिसाल कायम करे ताकि हिंसा के पुजारी अगला अपराध करने से सौ बार सोचें ।
@ राकेश अचल