*जाने,कैसी होगी कोरोना के बाद जिंदगी?-के सी शर्मा*


 कुछ समय पहले एक व्यक्ति 10 -12 दिन जेल काट कर आए। 
लौटने के बाद उनमें अजीब बदलाव हुआ । 
वे बेवक़्त खाते, सारी रात जागते ! दिन भर सोते । कभी रात दो बजे डिनर करते कभी सुबह सात बजे कहते मैं लंच कर रहा हूं।
 जेल में हर चीज का वक्त मुकर्रर था , उनका तर्क था -  मैं अब जेल में थोड़ी हूं जो तय वक्त पर ही खाऊं सोउं !


यानी हर अनुभव के बाद हम बदल जाते हैं । 
कभी थोड़े समय के लिए ,कभी हमेशा के लिए । 
कोरोना और यह "लॉक डाउन" हमारे जीने के तौर-तरीकों , मान्यताओं पर गहरा असर डालेगा । 
पिछले पचास साठ साल मानवता के इतिहास का सबसे शांत समय रहा है ।
 हमने कोई विश्व युद्ध नहीं 
देखा । 
कोई बड़ी महामारी नहीं ,कोई अकाल नहीं ,कोई बड़ी असुरक्षा नहीं !
  ऐसे में सोचना दिलचस्प है कि हमारी पीढ़ी के ऊपर इस पहली बड़ी आफत के क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव होंगे ?


"लॉक डाउन" के खत्म होने के बाद लोग किस तरह का व्यवहार करेंगे ?
 हो सकता है ,लोग लगातार दिन रात बाहर रहें । 
घूमना- टहलना , लोगों से मिलना-जुलना , सामाजिक संबंध ! हम अचानक पच्चीस तीस साल पहले के दौर में जा सकते हैं । 
हो सकता है लोग एक दूसरे से ज्यादा प्यार करने लगें। मैनेजमेंट गुरु बताते हैं जब कुछ लोग मिलकर एक मुश्किल से जूझते हैं , तो उनके बीच एक रिश्ता पनप जाता है । 
एक सज्जन पहाड़ पर ट्रैकिंग करने गए थे । वहां वे एक अजनबी लड़की के साथ तूफान में फंस गए । 
10 दिन के संघर्ष के बाद उनकी जान बच पाई । लौटते ही उन्होंने उस लड़की से शादी कर ली । जबकि उनमें कोई कंपैटिबिलिटी नहीं थी । 
जल्द ही उनका तलाक भी हो गया।
 उन्होंने  बताया मुसीबत में साथ लड़ते लड़ते एक खास किस्म का इमोशन पैदा हो गया था जिसे वे प्यार समझ बैठे थे । क्या कोरोना से लड़ते हुए देश दुनिया के लोगों के  बीच कोई खास इमोशन पैद हो सकता है ? दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोपियन देशों ने मिलकर एक यूनियन बनाया था और वे अब तक प्यार से रह रहे हैं।


कोरोना हमारी कामकाजी जिंदगी को भी बदल सकता है। क्या होगा जब महीने दो महीने बाद हम अपनी दुकान दफ्तर जाएंगे ? 
क्या हमें अचानक अपना काम बहुत महत्वपूर्ण लगने लगेगा ? क्या हम 8 घंटे की जगह 16 घंटे काम करेंगे ? 
पर इसका उल्टा भी तो हो सकता है ! हो सकता है हमें हैरानी हो कि हम ये बेवकूफी भरा काम  इतने बरसों से कैसे कर रहे थे ?
 मेरे पुराने घर के पास एक कचरे की पेटी थी ।
 हमारे घर जो भी मेहमान आता, पूछता- इतनी बदबू में आप कैसे रहते हैं ?
 पर हम हैरान होते , बदबू तो है ही नहीं , ये क्या कह रहे हैं ? असल में हम उस बदबू के आदी हो गए थे ! 
फिर जब हम नए घर में चले गए और कुछ समय बाद पुराने घर जाना हुआ तब हम खुद हैरान हो गए कि आखिर इतनी बदबू में कोई कैसे रह सकता है ! 
हमारे दफ्तर कामकाजी जिंदगी में भी तो कई कचरे की पेटियां हैं जिनकी बदबू को बर्दाश्त करने के हम आदी हो चले हैं । 
इस लम्बे अलगाव के बाद जब हम वापस लौटेंगे तब शायद हम हैरान हों कि हम इन्हें कैसे बर्दाश्त कर रहे थे ,और हो सकता है हम दफ्तर ,दुकान से भाग आएं।


लंबे समय तक घर पर आराम करने के भी अपने प्रभाव होंगे । हो सकता है हमें आराम की आदत पड़ जाए। मेरे एक मित्र एक्सीडेंट के बाद में 3 महीने घर पर रहे । 
उसके बाद उनका कामकाजी जीवन हमेशा के लिए बदल
 गया । उन्हें दफ्तर में मजा नहीं आता था । वह बार-बार घर आ जाते थे। 
बाहरी दुनिया की चुनौतियों से जूझने की उनकी आदत छूट गई थी ।ऐसा ही एक और किस्सा
 है । 
 अपनी फैक्ट्री की मशीन जिनसे सुधरवाता था वे बड़े काबिल हुनरमंद थे । 
लोग दूर-दूर से उन से काम कराने आते थे। 
वे एक बार हज पर चले गए। हज से लौटने के बाद वे दिनभर लोगों को अपने हज के किस्से सुनाते ,बाकी समय इबादत में गुजरता । 
धीरे-धीरे उनका वर्कशॉप पर जाना कम होता गया । एक साल के भीतर ही उन्होंने वर्कशॉप बंद कर दी।


कोरोना का असर हमारी धार्मिक मान्यताओं पर भी होगा ।
 हो सकता है लोग ज्यादा धार्मिक हो जाएं ! 
 पर इसका उल्टा भी हो सकता है । 
आज इस मुसीबत के वक्त सिर्फ विज्ञान हमारे काम आ रहा है । संभव है कुछ लोगों के मन में यह सवाल उठे कि सचमुच कि यदि ऊपर कोई है तो इस कठिन समय में हमारी मदद क्यों नहीं करता ?
 कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई है ही नहीं ! नास्तिकता के विचार के लिए कोरोना का समय  सुअवसर हो सकता है ।


 बताते हैं 17 वीं शताब्दी में चेचक की महामारी के दौरान लोगों का चर्च पर से विश्वास उठ गया था ।


टेक्नोलॉजी ने पिछले कुछ वर्षों में कई चीजें बदल दी हैं । 
पर हम पुरानी आदतों को बंदरिया के मरे बच्चे की तरह चिपकाए हुए हैं। 
स्कूल जैसा मूर्खतापूर्ण प्रयोग जो इंटरनेट के आ जाने के बाद तुरंत बंद हो जाना चाहिए था। अभी भी चल रहा है। कोरोना के दिनों में ऑनलाइन पढ़ाई का अनुभव शायद स्कूल कॉलेज से जल्दी छुटकारा पाने में हमारी मदद करे।
ऐसा ही मामला दफ्तर का भी है। कई काम ऐसे हैं जिनके लिए रूबरू मिलने या दफ्तर जाने की जरूरत नहीं है ।
 पर हम आदतन ऐसा कर रहे
 हैं ।
 कोरोना के दिनों में जो लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं उन कंपनियों और वर्कर्स को यह स्वीकार करने में मदद मिलेगी कि उन्हें दफ्तर जाने की सचमुच कोई आवश्यकता नहीं थी।


ऐसा ही एक मामला लिपि का भी है । 
लिपि का आविष्कार इंसान ने अपने संदेशों को दूर बैठे व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए किया था । लिखकर अपनी बात पहुंचाना भाव अभिव्यक्ति का एक लूला लंगड़ा जरिया है । 
लिपि गूंगी है ।
 वॉइस माड्यूलेशन और ध्वनियों के बगैर लिखा हुआ सन्देश अक्सर अर्थ का अनर्थ करता
 है । 
लिपि हमारी मजबूरी थी क्योंकि और कोई तरीका नहीं था। अब जब हमारे पास ऑडियो विजुअल के रूप में कम्युनिकेशन का एक बेहतर विकल्प है तब लिपि के खत्म होने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी ? कोरोना के दिनों में ऑडियोबुक्स का बढ़ता चलन इस बात की तस्दीक करता है कि आने वाली दुनिया ऑडियो विजुअल की है । 


कोरोना ने प्रिंट मीडिया , और किताबें लिखने वालों को समय रहते खुद को बदलने की चेतावनी दे दी है ।
दुनिया के सामने ये बदलाव ,चुनौतियां वैसे भी आनी थी , कोरोना ने इनकी रफ्तार को बस फास्ट फॉरवर्ड कर दिया 
है ।
कोरोना हमारी राजनीति को भी बदलेगा ।
 युद्ध समेत हर बड़ी आपदा किसी  लीडर के लिए  सुनहरा मौका होती है ।  
संकट के समय जनता आंखें बंद कर  अपने लीडर के पीछे चलती है । 
इस समय का फायदा उठाकर दुनिया के किसी देश में  कोई नेता  तानाशाही  की तरफ भी बढ़ सकता है । 
लोग इस  दौरान मृत्यु के बारे में सोचेंगे , रोमांस , पेरेंटिंग खानपान न जाने कितनी चीजें हैं ,जिन पर यह "लॉक डाउन" लंबा खिंचा तो गहरा असर डाल सकता है ।