कोरोना से बड़ा संक्रमण "भाषा" के ऊपर  ***राकेश अचल ***
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जानलेवा महामारी कोरोना से हो रही जंग के बीच अब भाषाई संक्रमण फैलने का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। भाषा को संक्रमण से बचने की जिम्मेदारी पढ़े-लिखों पर ही नहीं अपितु कुपढों के ऊपर भी होती है ।भाषाविदों से कहीं ज्यादा भाषा को समृद्ध करने का कर्म शिक्षक और समाज करता है ,बाद में ये जिम्मेदारी अखबारों और फिर टीवी के कन्धों पर आ गयी लेकिन दुर्भाग्य ये है कि अभिव्यक्ति के ये दोनों झंडावरदार भाषा की ऐसी-तैसी करने पर आमादा हैं ।
हाल ही में एक टीवी चैनल के ऐंकर ने भाषाई छुद्रता की नई मिसाल पेश की है।दुर्भाग्य ये कि देश में इस छुद्रता का समर्थन करने वाले भी बड़ी संख्या में खड़े हो गए जबकि होना उलटा चाहिए था ।आँखों पर सियासी चश्मा लगाकर देखने वाले ये भूल रहे हैं कि टीवी के जरिये ये भाषायी संक्रमण उनके शयनकक्ष तक भी दस्तक दे रहा है और कल को उनके परिवार की महिलाओं के लिए भी वो ही भाषा इस्तेमाल की जा सकती है जो टीवी चैनल वाले आजकल कर रहे हैं ।
चूंकि मै भाषाई मर्यादाओं का प्रबल पक्षधर हूँ इसलिए न तो किसी चैनल का नाम लेना चाहता हूँ और न किसी ऐंकर का ।आज की दुनिया में सब कुछ पारदर्शी है इसलिए सबको पता है कि संक्रमण कौन और कहाँ  और क्यों फैला रहा है ?लोकतंत्र में सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है इसलिए लोग इसका इस्तेमाल अपने-अपने  ढंग से करते हैं। पहले भाषा संसद में असंसदीय  हुई फिर सड़क पर। । नेताओं ने इसे सड़क पर संक्रमण से बीमार  करना शुरू कर दिया ।
भाषाई संक्रमण का विषाणु नया नहीं है ,लेकिन हाल के दशकों में इसका जोर बढ़ता ही जा रहा है। सत्ता संघर्ष में जो भाषा इस्तेमाल की जाती ही उसमें संक्रमण सबसे अधिक होता है ।इस विषय पर मै पहले भी अनेक बार लिख चुका हूँ ,फिर भी ध्यान दिला दूँ कि सबसे पहले 'गली-गली में चोर है' का नारा 'मिस्टर क्लीन' नाम से जाने पहचाने वाले एक राजनेता के खिलाफ लगा।फिर एक नेता को 'मौत का सौदागर' कहा गया और फिर किसने ,किसको ,क्या नहीं कहा इसकी एक लम्बी फेहरिश्त है ।और अब तो हद हो गई है।अब संक्रमण के वाहक नेता नहीं पत्रकार  बन गए हैं ।
दुनिया जानती है कि भाषा का पहला संस्कार माँ देती ही ,फिर स्कूल और फिर कालेज ।बाद में व्यक्ति अपनी भाषा खुद गढ़ता है ।भाषा ही मनुष्य को उन्नति और अवनति का रास्ता  दिखाती है ।भारत में अखबारों की शालीन भाषा को दूषित करने का काम उन बड़े और बहुसंस्करणीय अखबारों ने किया जो 'हिंगलिश' के हिमायती है ।यही काम बाद में दो दशक पहले वजूद में आये टीवी चैनलों ने एक दशक पहले शुरू किया ।आज भाषा की शालीनता अंतिम साँसे ले रही है ।अखबारों की आँखों में अब भी थोड़ी शर्म बची है किन्तु टीवी चैनल वालों ने तो शर्म को घोल कर पी लिया है ।
मुझे सलाह देने का हक नहीं है फिर भी मेरी धारण है कि कौवों ,सियारों और गधों के सुर में बोलने वाले ऐंकरों को अब अपनी-अपनी पसंद के राजनीतिक   दलों की पूर्णकालिक सदस्य्ता ग्रहण कर लेना चाहिए ताकि कोई उन पर भाषाई संक्रमण फैलाने का आरोप न लग  सके क्योंकि राजनितिक दलों   के विद्वान प्रवक्ता [अपवादों को छोड़कर ]आजकल ये ही काम पूरी निष्ठा से करते हैं ।दुर्भाग्य से आज देश में गरीब जनता का न अपना कोई अखबार है और न टीवी चैनल इसलिए किसी अखबार में आम जनता के लिए कोई स्थान नहीं है । इसीलिए किसी टीवी चैनल पर कोई आम आदमी बहस में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है ।
टीवी के परदे पर बैठकर कांव-कांव करने वालों की अपनी जमात है और ये जमात कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार तब्लीगी जमातियों से कम खतरनाक नहीं है ।तब्लीगी यदि शरीर को संक्रमित कर रहे हैं तो टीवी वाले भाषा को ।इन्हें कोरंटीन करने का समय आ चुका है अन्यथा वो दिन दूर नहीं कि हमारी देव भाषा दानवों की भाषा बनने में देर नहीं लगाएगी ।हमारी भाषा में लालित्य है,संवेदना है,सम्मान है ,हमारी भाषा गाली-गलौच की भाषा नहीं है ।इसे गाली-गलौच की भाषा बनाया जा रहा है ।मुझे ताज्जुब होता है कि मीडिया के लिए बने तथाकथित नियामक क्यों आँख बंद किये बैठे हैं ?क्या उन्हें भाषा को अमर्यादित होने से बचने का काम नहीं दिया गया है ?
भारत जैसे देश का दुर्भाग्य है कि अमर्यादित भाषा बोलने वालों को 31  फीसदी जनता के नेताओं के समर्थक शेर की दहाड़ समझते हैं ,वे संक्रमित भाषा बोलने वालों की पीठ थपथपाते हैं उनका अभिनंदन करते हैं ,निंदा करने वले उन्हें कायर और देशद्रोही लगते हैं ।ऐसे लोगों के लिए कुछ नहीं कहा जा सकता,हाँ प्रार्थना जरूर की जा सकती है ।आज कोई ऐसा राजनीतिक दल और दूर-दर्शन [ सरकारी नहीं ] नहीं है जो भाषा से व्यभिचार का आरोपी न हो ।इसलिए स्थिति बेहद गंभीर है ।देश को विश्वगुरु बनाये रखना है तो सबसे पहले भाषा को संक्रमित होने से बचाना होगा गुरू जी ,अन्यथा आपके टपोरी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा ।इस विषय पर आप जो भी अभिमत रखते हों मुझे कोई आपत्ति नहीं ,किन्तु कृपा कर मुझे संक्रमित भाषा में कोसें न 
@ राकेश अचल