प्रश्नाकुलता से भागता समाज  ****राकेश अचल ****

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'जब लिखने से कुछ न बदले तो या तो लिखना बंद कर  देना चाहिए या फिर लेखन का विषय बदल देना चाहिए' ये मश्विरा दिया है सात  समंदर  पार बैठे मेरे बेटे ने, जिससे मेरी बतरस निरंतर होती रहती है ।मेरा बेटा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का समर्थक  भी नहीं है और मेरा विरोधी भी नहीं,लेकिन मेरी ही तरह खरी-खरी कहता है ।
विश्वव्यापी कोरोना संकट के खिलाफ प्रधानमंत्री मोदी का ताली-थाली आव्हान कामयाब हुआ और फिर दीपोत्सव  को भी अपार सफलता मिली और इनका उपहास करने वाले हमारे जैसे असंख्य  लोग लोगों को समझाते ही रह गए ।मोदी जी की इस कामयाबी को सैल्यूट करना चाहिए ,क्योंकि उनके तौर-तरीकों से भारतीय समाज में मौजूद प्रश्नाकुलता धीरे-धीरे समाप्त हो रही है और जो लोग प्रश्नाकुल हैं उन्हें मूर्ख और राष्ट्रद्रोही समझा जाने लगा है ।ये स्वाभाविक है और मै इसे अन्यथा नहीं लेता ,मेरे साथी भी शायद ऐसा करते हों। 
दीपोत्स्व के रबग-बिरंगे चित्र देखकर मेरा मन भी प्रफुल्लित है ,रोशनी सबको प्रफुल्लित करती है ,लेकिन रौशनी के अपने निहितार्थ होते हैं ।हम या तो विजय हासिल होने पर रौशनी करते हैं या घोर हताशा में ।हमें पता नहीं है कि हम जीते हैं या हताश हैं ।जो भी हैं लेकिन हम एक हैं और हमारी ये एकता स्तुत्य है ,भले ही इसमें छिपा तम हमें दिखाई नहीं देता 
प्रश्नाकुलता विकास की पहली शर्त होती है ,विज्ञान का आधार है,कम से कम हमारी पत्रकारिता का तो पहला सबक ही है कौन,कहाँ,कब,कैसे ? जाहिर है जो समाज प्रश्नाकुल नहीं है उसके लिए सत्य की तह तक  पहुंचना आसान नहीं है ।लोकतंत्र में प्रश्नाकुलता को पूरा सम्मान दिया जाता है और जहां प्रश्नकुलता की उपेक्षा की जाती है वहां दबे पांव लोकतंत्र की जगह एकतंत्र  या व्यक्तिवाद ले लेता है ।भारत में सियासत में तो ऐसा बहुत पहले से होता आया है और आज भी हो रहा है और शायद आगे भी होगा ।खतरा इस बात का है कि प्रश्नाकुल समाज आखिर जिस अंधी सुरंग में प्रवेश करता जा रहा है वहां से सुरक्षित लौटेगा कैसे ?
मान लीजिये कि मै पुत्रमोह में अपनी प्रश्नाकुलता का परित्याग कर भी दूँ तो क्या इससे समाज का कल्याण हो जाएगा ?शायद नहीं ।किसी भी प्रशासनिक व्यवस्था में सचिव,वैद्य और गुरु यदि भी के कारण सच बोलना छोड़ देंगे तो राज यानि शासन धर्म यानि विधान और तन यानि समाजिक स्वास्थ्य की हानि होना तय है ।ये आजमाया हुआ सत्य है जो हमारे सामने सदियों से उपलब्ध है,अब यदि इसे भी झुठला दिया जाये तो फिर भगवान ही मालिक है ।
मुझे नहीं पता कि दुनिया में कितने वैज्ञानिक  मोदी जी के प्रयोगों की तरह दुनियामें होने वाले ऐसे ही प्रयोगों को मान्यता देते है ,लेकिन ये हकीकत है कि  मात्र 31  फीसदी मतों से जीते मोदी जी के प्रयोगों को भारत में अपार सफलता मिल रही है ।मुमकिन है कि इन प्रयोगों से भारत की सूरत बदले जो हम जैसों के लेखन से मुमकिन नहीं हो रहा है ,लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो हमें सोचना ही पडेगा कि हम प्रश्नाकुलता  के साथ रहें या उसका परित्याग कर दें ?
राष्ट्रवाद के नाम पर प्रशनाकुलता को हासिये पर ले जाना एक बड़ा खतरनाक खेल है ,दुर्भाग्य से हम इस खेल में बुरी मुब्तला  हैं,हमें इस सच्चाई को समझना चाहिए ,जो नहीं समझना चाहते उन्हें इसकी छूट है ।उन्हें छूट है कि वे अपने घरों में दुधमुंहे बच्चों के सवालों की अनदेखी करें ,उन्हें सच से दूर रखें क्योंकि राष्ट्रवाद का मामला है ,लेकिन मै अपने बेटे के आग्रह के बावजूद प्रश्नाकुलता के साथ खड़ा रहना चाहूंगा ।प्रश्नाकुलता जीवन के लिए प्राणवायु की तरह है ,मुझे पता है कि मेरे बेटे की तरह मुझसे स्नेह करने वाले तमाम लोग यही चाहेंगे कि मै जो कर रहा हूँ वो ही करूँ  किन्तु वे सब मेरे भावी अनिष्ट को देखते हुए मुझे लेखन की दिशा बदलने का मश्विरा दे रहे हैं ।मै बहुत आसानी से अपने शुभचिंतकों  की बात मान  सकता हूँ ।लेकिन ऐसा करने से बेहतर मै लेखन से मुक्त होना बेहतर समझूंगा ।
लेखन में एक विधा होती है जिसे लोक भाषा में 'ठकुरसुहाती 'कहते हैं ।इस विधा में दक्ष लोग कभी दुखी नहीं होते,उनके परिजनों को कभी दुश्चिंताएँ नहीं सतातीं ।इस विधा के पंडितों को मनसब भी मिलते हैं और दूसरे सम्मान भी ।दुर्भाग्य से मैंने ये विधा आपने छात्र जीवन में सीखी नहीं और अब चौथेपन में इस विधा में उपाधि हासिल करने की कोई अभिलाषा भी नहीं है ।इसलिए कामना कीजिये कि समाज में प्रश्नाकुलता जीवित रहे ।आप मेरी बात मानें या न माने इसके लिए आप स्वत्तन्त्र हैं ।मेरी अपील से कोरोना का कोई संबंध नहीं है ।
@ राकेश अचल