चंबल की एक किंवदंती थे मोहरसिंह 

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एक जमाना था जब चंबल में पत्रकारों से केवल डाकुओं से जुड़ी खबरों की ही मांग की जाती थी ।डाकुओं के प्रति बढ़ते इस आकर्षण ने मरे जैसे अनेक पत्रकारों को जाने-अनजाने दस्यु विशेषज्ञ बना दिया था ।हमारा काम ही  डाकुओं से जुड़ी खबरें खंगालना और उन्हें बेचना था ।उसी  दौर में मुझे आजादी के बाद चंबल में दहशत का एक काला इतिहास   लिखने  वाले जिन दुर्दांत दस्यु सरगनाओं से मिलने का मौक़ा मिला उनमें से एक मोहर सिंह भी थे ।
साठ के दशक में चंबल डाकुओं के जिन दो गिरोहों के नाम से आतंकित थी उनमें एक मोहर सिंह और दूसरे थे माधौ सिंह ।माधौ सिंह पढ़े लिखे थे मास्टर कहे जाते थे और मोहर सिंह अनपढ़ ।उन्हें दाढ़ी के नाम से जाना जाता था लेकिन दोनों के गिरोह पुलिस के लिए चुनौती और जनता के लिए आतंक का दूसरा नाम था । अभी बात मोहर सिंह की हो रही है आज एक गुमनाम मौत मर गया कोई 92  साल के मोहर सिंह को आज की पीढ़ी जानती ही नहीं होगी लेकिन उसका भी एक युग था ।मोहर सिंह के गिरोह में एक साथ 150  तक डाकू हुआ करते थे ।
मोहर सिंह ने 1971 -72 में जब बाबू जय प्रकाश नारायण के समक्ष समर्पण किया उस समय मेरी उम्र मात्र 13  वर्ष थी। मेरे पिता राजस्व अधिकारी थे उनके साथ 13  साल की उम्र में पहली बार किसी जीवितडाकू को देखा था ।मोहर सिंह से  दोबारा मिलने में मुझे दो दशक लगे उस समय मै पत्रकार बन गया था ।
दिल्ली से दूरदर्शन के लिए काम करने वाली संस्था एनईईटीवी से मुझे 'किरण 'कार्यक्रम के लिए एक लघु फिल्म बनाने का मौक़ा मिला ।मै अपनी टीम के साथ मोहर सिंह के मेंहगांव स्थित घर पहुंचा ।उस समय मोहरसिंह 67  साल के रहे होंगे ।दिन में ही सुरापान करने वाले मोहर सिंह को फिल्म के लिए तैयार करने में पसीना आ गया ।एक तो दाढ़ी शर्मीले ऊपर से उनके संगी-साथी लालची कहने लगे फिल्म बनवाने के में पैसे दो ! हम बड़ी मुश्किल से उन्हें अभिनय के लिए राजी कर पाए । हमने मोहर सिंह को पास के बीहड़ में ले जाकर  अतीत के कुछ दृश्य फिल्माए समर्पण की घटना को रिक्रिएट किया और फिर लंबा साक्षात्कार किया ।
फिल्म के अंतिम दृश्य के लिए उन्हें लेकर हमें पुलिस थाने जाना था लेकिन वे तैयार नहीं हुए ।मोहर सिंह पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीत चुके थे किन्तु पुलिस से उन्हें बड़ा संकोच लगता था ।बहरहाल वे राजी हुए थाने तक एक पोटली लेकर गए और उनका ये दृश्य इतना स्वाभाविक बना कि हम सब द्रवित हो गए ।उनके अपने गांव में मोहर सिंह को देखने भीड़ लग गयी ।
मात्र 18  साल की उम्र में डाकू बनने वाले मोहर सिंह को चंबल में रॉबिनहुड जैसा सम्मान प्राप्त था ।उनकी  गिरफ्तारी पर समर्पण से पहले दो  लाख रूपये का इनाम था ।मानसिंह के बाद चंबल घाटी का सबसे बड़ा नाम था मोहर सिंह का। मोहर सिंह जिसके पास डेढ़ सौं से ज्यादा डाकू थे। मोहर सिंह चंबल घाटी में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान की पुलिस फाईलों में E-1 यानि दुश्मन नंबर एक के तौर पर दर्ज था। कहते हैं कि साठ के दशक में चंबल में मोहर सिंह की बंदूक ही फैसला थी और मोहर सिंह की आवाज ही चंबल का कानून। 
 पुलिस की रिकार्ड के मुताबिक़   1960 में अपराध की शुरूआत करने वाले मोहर सिंह ने इतना आतंक मचा दिया था कि पुलिस चंबल में घुसने तक से खौंफ खाने लगी थी। एनकाउंटर में मोहर सिंह के डाकू आसानी से पुलिस को चकमा देकर निकल जाते थे। मोहर सिंह का नेटवर्क इतना बड़ा था कि पुलिस के चंबल में पांव रखते ही उसको खबर हो जाती थी। और मोहर सिंह अपनी रणनीति बदल देता था। 
1958 में पहला अपराध कर पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होने वाला मोहर सिंह ने जब अपने कंधें से बंदूक उतारी तब तक वो ऑफिसियल रिकॉर्ड में दो लाख रूपए का ईनामी था और उसका गैंग 12 लाख रूपए का इनामी गैंग था। 1970 में इस रकम को आज के हिसाब से देंखें तो ये रकम करोड़ों का हिसाब पार कर सकती है। पुलिस फाईल में 315 मामले मोहर सिंह के सिर थे और 85 कत्ल का जिम्मेदार मोहर सिंह था। मोहर सिंह के अपराधों का एक लंबा सफर था लेकिन  अचानक ही इस खूंखार डाकू बंदूकों को रखने का फैसला कर लिया। 
गांव में मुकदमें में गवाही देना दुश्मनी पालना होता है। जटपुरा में एक दिन मोहर सिंह को उसके मुखालिफों ने पकड़ कर गवाही न देने का दवाब डाला। कसरत और पहलवानी करने के शौंकीन मोहर सिंह ने ये बात ठुकरा दी तो फिर उसके दुश्मनों ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। घायल मोहर सिंह ने पुलिस की गुहार लगाई लेकिन थाने में उसकी आवाज सुनने की बजाय उस पर ही केस थोप दिया गया। 
बुरी तरह से अपमानित मोहर सिंह को कोई और रास्ता नहीं सूझा और उसने चंबल की राह पकड़ ली। 1958 में गांव में अपने इसी मंदिर पर मोहर सिंह ने अपने दुश्मनों को धूल में मिला देने की कसम खाई और चंबल में कूद पड़ा।  
मोहर सिंह ने पहला शिकार अपने गांव के दुश्मन को किया। उसके बाद बंदूक के साथ मोहर सिंह जंगलों में घूम रहा था। शुरू में उसने बाकि बागियों के गैंग में शामिल होने की कोशिश की। दो साल तक जंगलों में भटकते हुए मोहर सिंह की किसी गैंग में पटरी नहीं बैठी तो मोहर सिंह ने फैसला कर लिया कि वो खुद का गैंग बनाएंगा और गैंग भी ऐसा जिससे चंबल थर्रा उठे। मोहर सिंह एकदम सीधा-सादा ग्रामीण था लेकिन उसके भीतर एक डाकू कैसे ज़िंदा रहा मै आज तक नहीं समझ सका ।मोहर सिंह ने बीहड़ छोड़ने के बाद दस्यु समर्पण अभियान में लम्बे समय तक सक्रिय भूमिका निभाई ।उसके चेहरे की  झबरीली दाढ़ी और मूंछों को कौन भुला सकता है ?[ये पूरा किस्सा मेरी पुस्तक 'खबरों का खुलासा 'में दर्ज है]
@ राकेश अचल