पहले भय से लड़ें ,फिर कोरोना से
*****************************
**
इस सदी में और इस युग में कोरोना ऐसी महामारी है जिससे पूरी दुनिया आक्रान्त है .कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अपने-अपने ढंग से लगे देश अभी तक कोई समेकित रणनीति नहीं बना पाए हैं ,जबकि हकीकत ये है की कोरोना से आक्रान्त दुनिया के सर पर भय का जो भूत सवार है उससे सबसे पहले लड़ने की जरूरत है .कोरोना जिंदगी के साथ ही हमारी सामाजि,आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी लीलता जा रहा है .
दुःख और क्षोभ की बात ये है की हमारी सरकारें लोगों की जान बचाने के लिए तो 'लाकडाउन ' जैसे अमानुषिक कदम उठा रही हैं किन्तु इन सबसे जो भी का वातावरण बन रहा है उसे समाप्त करने के लिए कोई काम नहीं कर रहीं .कोरोना से बचने के फेर में वे लोग भी मारे जा रहे हैं जो कोरोना के शिकार नहीं है ,उन्हें भूख और भी मारे डाल रहा है,कोई सड़क पर मर रहा है तो कोई वीराने में .अब तो भयाक्रांत लोग आत्महत्याएं भी करने लगे हैं क्योंकि उनके आगे रोजी-रोटी का संकट है .
अमेरिका हो या भारत कोरोना के खिलाफ जंग में ऐसे उलझे हैं की अवाम की रोजी-रोटी की चिंता करना ही भूल गए हैं .दुनिया में लोगों को कल के साथ आज की चिंता भी सत्ता रही है .जब खेत-खलिहान सूने हैं,कल-कारखाने बंद हैं यानी उत्पादन चक्र ही ठप्प हो रहा है तो केवल मुद्रा से क्या जिंदगी चलाई जा सकेगी ?दुनिया ये मानने के लिए तैयार ही नहीं है की 'लाकडाउन ' कोरोना या किसी अन्य बीमारी से निबटने का पहला और अंतिम प्रामाणिक तथ्य नहीं है .दुनिया के जिन देशों में कोरोना से निबटने के लिए 'लाकडाउन ' का इस्तेमाल किया वहां की स्थितियां देख लीजिये .
दुखद स्थिति ये है की दुनिया न संयुक्त राष्ट्र संघ को सुन रही है और न विश्व स्वास्थ्य संगठन को ,विश वित्त संस्थानों को भी नहीं सूना जा रहा है .सब एक सुर में कह रहे हैं की कोरोना के खिलाफ लड़ाई के मौजूदा तौर-तरीके सब कुछ नष्ट किये दे रहे हैं .विषय विशेषज्ञ न होने के बावजूद मेरी अलप बुद्धि कहती है की कोरोना के खिलाफ जंग जारी रखने के साथ ही दुनिया को अपनी तमाम गतिविधियां भी जारी रखना चाहिए .लाकडाउन से जो नुक्सान हो रहा है उसमें सब नंगी आँखों से नहीं दिखाई दे रहा .नंगी आँखों से हम उत्पादन में होती कमी और बेरोजगार होते लोग तो देख सकते हैं किन्तु हमारी कला-संस्कृति और परम्पराओं पर जो कुठाराघात हो रहा है वो हमें दिखाई ही नहीं दे रहा और न इन्हें बचने का कोई जतन ही किया जा रहा है .
भारत में मैंने बहुत कम लोगों को इन अछूते विषयों पर चर्चा करते हुए सूना है. सोशल मीडिया पर सीधी बात करने वालों में से केवल अशोक बाजपेयी मुझे इस विषय पर चिंता करते नजर आये .उन्होंने सवाल किया की देश में जो कलाकार केवल कला के भरोसे ही जीवित हैं उनके लिए किसी ने कुछ नहीं सोचा .आप प्रतिप्रश्न कर सकते हैं की जब आदमी ही नहीं होगा तो कला और संस्कृति का क्या कीजियेगा ?आपका प्रश्न सही हो सकता है लेकिन ये भी गलत नहीं है की बीमारी का हमला जितना बड़ा है नहीं उतना बना दिया गया है .विशेषज्ञ कहते हैं की कोरोना या किसी अन्य बीमारी से पूरी दुनिया का विनाश होने वाला नहीं है. केवल एक-दो फीसदी आबादी इन महमामारियों से प्रभावित होती है और इसे चिन्हित कर उसकी परवाह की जा सकती है लेकिन इस दो फीसदी आबादी को बचने के फेर में 98 फीसदी आबादी को निठल्ला नहीं बनाया जा सकता .
मौजूदा परिदृश्य में दुनिया गोल होते हुए भी गोल नहीं है .दुनिया के समपर्क एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए हैं,दुनिया तो छोड़िये देश-प्रदेश,गांव-शहर सब एक दूसरे से कटे हुए हैं .अरे मुहल्ले तक आपस में काट दिए गए हैं.इसे क्या आप समझदारी की रणनीति कह सकते हैं और यदि कह सकते हैं तो ये विषय आपके विमर्श के लिए है ही नहीं ..समस्त मानवता को बचने के लिए हमें व्यावहारिक रणनीति बनाना होगी ,क्या ये तथ्य नहीं है की लाकडाउन के दौरान जितने लोग मरे उससे कहीं ज्यादा को दुनिया ने गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया है ?इस बोझ को ये धरती श लेगी क्या ?क्या ये अदूरदर्शिता नहीं है ?दअरसल ऐसे कड़वे सवाल करने की आज के समय में मनाही है ,इन्हें बेशर्मी माना जाता है,राष्ट्रविरोधी माना जाता है ,जबकि ऐसा है नहीं .
आप जब ये लेख पढ़ रहे होणगे तब दुनिया में 40 ,12 ,857 लोग कोरोना का शिकार बन चुके हैं,इनमे से 2 ,76 ,216 लोग मारे जा चुके हैं लेकिन 13 ,85 ,185 लोगों को कोरोना के जबड़े से छीना भी गया है अर्थात पलड़ा कोरोना का नहीं हमारा भारी है और आने वाले दिनों में हम यानी दुनिया कोरोना को मारने के इंतजाम करने में कामयाब होगी ,इसलिए अब कोरोना के खिलाफ सड़क को सूना कर नहीं सड़क को आबाद कर लड़ाई लड़ी जाना चाहिए .आप कहेंगे की ये खतरनाक,आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण कोशिश होगी ,मुमकिन है की हो भी लेकिन हमें ये करना होगा अन्यथा दुनिया कोरोना से कम कोरोना के भय से अधिक मर जाएगी .
आज सूचनाक्रांति चरमोत्कर्ष पर है ,इसलिए भय का भूत और तीव्रता से लोगों के सर पर सवार होने में कामयाब हुआ है .जरूरत है की हमारे सूचना प्रदान करने के समस्त संसाधन इस भी के भूत को प्रबल बनाने के बजाय इसे उतारने के काम में लगें .समाचार और सूचना बुलेटनों को कोरोनामय न बनाएं .कोरोना के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ लगातार हो रहा है उसकी चर्चा करें ,कोरोना को उतना ही फैलाएं जितना की सुरक्षा के लिहाज से जरूरी है .आज कोरोनामय सूचना बुलेटिनों ने कोरोना के मरीज को 'महाअछूत' बना दिया है .लोग जीवित कोरोना पीड़ित को तो छोड़िये मृत कोरोना देह को भी स्वीकारने के लिए राजी नहीं है भले ही मरने वाला उनका निकटतम सगा-संबंधी ही क्यों न हो .इस समूची दुर्दशा के लिए हमारी सूचना क्रान्ति जिम्मेदार है .इसने समाज को असहिष्णु और असंवेदनशील बना दिया है .हमें इस पाषाण होते समाज को बचाना होगा अन्यथा हम सब कुछ गंवा देंगे ..
दुनिया में सिर्फ भारतीय दर्शन में ही नहीं अन्य दर्शन भी जीवन और मौत के सत्य को स्वीकार करते हैं ,इसका उत्स्व भी मनाया जाता है और इसे एक संस्कार भी माना जाता है ,लेकिन भी ने हमें इस नित्य के सत्य को भुलाने पर विवश कर दिया है .ये खतरनाक तब्दीली है .इसलिए इस महासंकट के दौर में मनुष्यता को मरने से बचाइए .रोग आज है ,कल नहीं रहेगा लेकिन यदि हमने मनुष्यता और संवेदनशीलता खो दी तो कल हम वहां नहीं होंगे,जहां आज हैं .
@ राकेश अचल
*****************************
इस सदी में और इस युग में कोरोना ऐसी महामारी है जिससे पूरी दुनिया आक्रान्त है .कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अपने-अपने ढंग से लगे देश अभी तक कोई समेकित रणनीति नहीं बना पाए हैं ,जबकि हकीकत ये है की कोरोना से आक्रान्त दुनिया के सर पर भय का जो भूत सवार है उससे सबसे पहले लड़ने की जरूरत है .कोरोना जिंदगी के साथ ही हमारी सामाजि,आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी लीलता जा रहा है .
दुःख और क्षोभ की बात ये है की हमारी सरकारें लोगों की जान बचाने के लिए तो 'लाकडाउन ' जैसे अमानुषिक कदम उठा रही हैं किन्तु इन सबसे जो भी का वातावरण बन रहा है उसे समाप्त करने के लिए कोई काम नहीं कर रहीं .कोरोना से बचने के फेर में वे लोग भी मारे जा रहे हैं जो कोरोना के शिकार नहीं है ,उन्हें भूख और भी मारे डाल रहा है,कोई सड़क पर मर रहा है तो कोई वीराने में .अब तो भयाक्रांत लोग आत्महत्याएं भी करने लगे हैं क्योंकि उनके आगे रोजी-रोटी का संकट है .
अमेरिका हो या भारत कोरोना के खिलाफ जंग में ऐसे उलझे हैं की अवाम की रोजी-रोटी की चिंता करना ही भूल गए हैं .दुनिया में लोगों को कल के साथ आज की चिंता भी सत्ता रही है .जब खेत-खलिहान सूने हैं,कल-कारखाने बंद हैं यानी उत्पादन चक्र ही ठप्प हो रहा है तो केवल मुद्रा से क्या जिंदगी चलाई जा सकेगी ?दुनिया ये मानने के लिए तैयार ही नहीं है की 'लाकडाउन ' कोरोना या किसी अन्य बीमारी से निबटने का पहला और अंतिम प्रामाणिक तथ्य नहीं है .दुनिया के जिन देशों में कोरोना से निबटने के लिए 'लाकडाउन ' का इस्तेमाल किया वहां की स्थितियां देख लीजिये .
दुखद स्थिति ये है की दुनिया न संयुक्त राष्ट्र संघ को सुन रही है और न विश्व स्वास्थ्य संगठन को ,विश वित्त संस्थानों को भी नहीं सूना जा रहा है .सब एक सुर में कह रहे हैं की कोरोना के खिलाफ लड़ाई के मौजूदा तौर-तरीके सब कुछ नष्ट किये दे रहे हैं .विषय विशेषज्ञ न होने के बावजूद मेरी अलप बुद्धि कहती है की कोरोना के खिलाफ जंग जारी रखने के साथ ही दुनिया को अपनी तमाम गतिविधियां भी जारी रखना चाहिए .लाकडाउन से जो नुक्सान हो रहा है उसमें सब नंगी आँखों से नहीं दिखाई दे रहा .नंगी आँखों से हम उत्पादन में होती कमी और बेरोजगार होते लोग तो देख सकते हैं किन्तु हमारी कला-संस्कृति और परम्पराओं पर जो कुठाराघात हो रहा है वो हमें दिखाई ही नहीं दे रहा और न इन्हें बचने का कोई जतन ही किया जा रहा है .
भारत में मैंने बहुत कम लोगों को इन अछूते विषयों पर चर्चा करते हुए सूना है. सोशल मीडिया पर सीधी बात करने वालों में से केवल अशोक बाजपेयी मुझे इस विषय पर चिंता करते नजर आये .उन्होंने सवाल किया की देश में जो कलाकार केवल कला के भरोसे ही जीवित हैं उनके लिए किसी ने कुछ नहीं सोचा .आप प्रतिप्रश्न कर सकते हैं की जब आदमी ही नहीं होगा तो कला और संस्कृति का क्या कीजियेगा ?आपका प्रश्न सही हो सकता है लेकिन ये भी गलत नहीं है की बीमारी का हमला जितना बड़ा है नहीं उतना बना दिया गया है .विशेषज्ञ कहते हैं की कोरोना या किसी अन्य बीमारी से पूरी दुनिया का विनाश होने वाला नहीं है. केवल एक-दो फीसदी आबादी इन महमामारियों से प्रभावित होती है और इसे चिन्हित कर उसकी परवाह की जा सकती है लेकिन इस दो फीसदी आबादी को बचने के फेर में 98 फीसदी आबादी को निठल्ला नहीं बनाया जा सकता .
मौजूदा परिदृश्य में दुनिया गोल होते हुए भी गोल नहीं है .दुनिया के समपर्क एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए हैं,दुनिया तो छोड़िये देश-प्रदेश,गांव-शहर सब एक दूसरे से कटे हुए हैं .अरे मुहल्ले तक आपस में काट दिए गए हैं.इसे क्या आप समझदारी की रणनीति कह सकते हैं और यदि कह सकते हैं तो ये विषय आपके विमर्श के लिए है ही नहीं ..समस्त मानवता को बचने के लिए हमें व्यावहारिक रणनीति बनाना होगी ,क्या ये तथ्य नहीं है की लाकडाउन के दौरान जितने लोग मरे उससे कहीं ज्यादा को दुनिया ने गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया है ?इस बोझ को ये धरती श लेगी क्या ?क्या ये अदूरदर्शिता नहीं है ?दअरसल ऐसे कड़वे सवाल करने की आज के समय में मनाही है ,इन्हें बेशर्मी माना जाता है,राष्ट्रविरोधी माना जाता है ,जबकि ऐसा है नहीं .
आप जब ये लेख पढ़ रहे होणगे तब दुनिया में 40 ,12 ,857 लोग कोरोना का शिकार बन चुके हैं,इनमे से 2 ,76 ,216 लोग मारे जा चुके हैं लेकिन 13 ,85 ,185 लोगों को कोरोना के जबड़े से छीना भी गया है अर्थात पलड़ा कोरोना का नहीं हमारा भारी है और आने वाले दिनों में हम यानी दुनिया कोरोना को मारने के इंतजाम करने में कामयाब होगी ,इसलिए अब कोरोना के खिलाफ सड़क को सूना कर नहीं सड़क को आबाद कर लड़ाई लड़ी जाना चाहिए .आप कहेंगे की ये खतरनाक,आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण कोशिश होगी ,मुमकिन है की हो भी लेकिन हमें ये करना होगा अन्यथा दुनिया कोरोना से कम कोरोना के भय से अधिक मर जाएगी .
आज सूचनाक्रांति चरमोत्कर्ष पर है ,इसलिए भय का भूत और तीव्रता से लोगों के सर पर सवार होने में कामयाब हुआ है .जरूरत है की हमारे सूचना प्रदान करने के समस्त संसाधन इस भी के भूत को प्रबल बनाने के बजाय इसे उतारने के काम में लगें .समाचार और सूचना बुलेटनों को कोरोनामय न बनाएं .कोरोना के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ लगातार हो रहा है उसकी चर्चा करें ,कोरोना को उतना ही फैलाएं जितना की सुरक्षा के लिहाज से जरूरी है .आज कोरोनामय सूचना बुलेटिनों ने कोरोना के मरीज को 'महाअछूत' बना दिया है .लोग जीवित कोरोना पीड़ित को तो छोड़िये मृत कोरोना देह को भी स्वीकारने के लिए राजी नहीं है भले ही मरने वाला उनका निकटतम सगा-संबंधी ही क्यों न हो .इस समूची दुर्दशा के लिए हमारी सूचना क्रान्ति जिम्मेदार है .इसने समाज को असहिष्णु और असंवेदनशील बना दिया है .हमें इस पाषाण होते समाज को बचाना होगा अन्यथा हम सब कुछ गंवा देंगे ..
दुनिया में सिर्फ भारतीय दर्शन में ही नहीं अन्य दर्शन भी जीवन और मौत के सत्य को स्वीकार करते हैं ,इसका उत्स्व भी मनाया जाता है और इसे एक संस्कार भी माना जाता है ,लेकिन भी ने हमें इस नित्य के सत्य को भुलाने पर विवश कर दिया है .ये खतरनाक तब्दीली है .इसलिए इस महासंकट के दौर में मनुष्यता को मरने से बचाइए .रोग आज है ,कल नहीं रहेगा लेकिन यदि हमने मनुष्यता और संवेदनशीलता खो दी तो कल हम वहां नहीं होंगे,जहां आज हैं .
@ राकेश अचल